|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, एकादशी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है
गत ब्लॉग से आगे….बच्चा कभी अभिमानवश यह सोचता है की मैं अपने ही पुरुषार्थ से
चढ़ता हूँ, तब माता कुछ दूर हटकर कहती है , ‘अच्छा चढ़ !’ परन्तु सहारा न पाने से वह
चढ़ नहीं सकता | गिरने लगता है और रोता है, तब माता उसे दौड़ कर बचाती है इसी प्रकार
अपने प्रयत्न का अभिमान करने वाला भी गिर सकता है परन्तु यह ध्यान रहे, भगवान की
कृपा का तात्पर्य यह कदापि नहीं है की मनुष्य सब कुछ छोड़कर हाथ-पर-हाथ धर कर बैठ जाए,
कुछ भी न करे | ऐसा मानना तो प्रभु की कृपा का दुरूपयोग करना है | जब माता बच्चे
को ऊपर चढ़ाती है, तब सारा कार्य माता ही करती है, परन्तु बच्चे को माता के आज्ञा
अनुसार चेष्टा तो करनी ही पडती है | जो बच्चा माँ के इच्छानुसार चेष्टा नहीं करता
या उससे विपरीत करता है, उसको माता उसके हितार्थ डराती-धमकाती है तथा कभी-कभी
मारती भी है |
इस मार में भी माँ के
ह्रदय का प्यार भरा रहता है, यह भी उसकी परम दयालुता है | इसी प्रकार भगवान भी
दयापरवश होकर समय-समय पर हमको चेतावनी देते है |
मतलब यह की जैसे बच्चा अपने को और अपनी सारी क्रियाओं को माता के प्रति
सौपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमे भी अपने आपको और अपनी सारी क्रियाओं को
परमात्मा के हाथों में सौपकर उनके चरणों में पड जाना चाहिये | इस प्रकार बच्चे की
तरह परम श्रद्धा और विश्वास के साथ जो
अपने-आपको परमात्मा की गोद में सौप देता है वही पुरुष परमात्मा की कृपा का इच्छुक और पात्र समझा जाता
है और इसके फलस्वरूप वह परमात्मा की दया से परमात्मा को प्राप्त हो जाता है |
सारांश यह है की परमात्मा की प्राप्ति परमात्मा की दया से होती है; दया ही एकमात्र
कारण है | परन्तु यह दया मनुष्य को अकर्मण्य नहीं बना देती | परमात्मा की दया से
ही ऐसा परम पुरुषार्थ बनता है | जीव का अपना कोई पुरुषार्थ नहीं, वह तो निमितमात्र
होता है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!