※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

संत-महिमा-९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, द्वादशी, शनिवार, वि० स० २०७०

संत की विशेषता

 

गत ब्लॉग से आगे…. उपर्युक्त दयासागर भगवान् की दया के तत्व और रहस्य को यथार्थ जाननेवाला पुरुष भी दया का समुद्र और सब भूतों का सुहृद बन जाता है, भगवान ने कहा है ‘सुहृदम सर्वभूतानाम ज्ञात्वा मम शान्तिमृछति |’ (गीता ५|२९) इस कथन क रहस्य यही है की दयामय  भगवान् को सब भूतों का सुहृद समझनेवाला पुरुष उस दयासागर के शरण होकर निर्भय हो जाता है तथा परम शान्ति और परमानन्द को प्राप्त होकर स्वयं दयामय बन जाता है | इसलिए भगवान ठीक ही कहते है मुझको सबका सुहृद समझनेवाला शान्ति को प्राप्त हो जाता है, ऐसे भगवत्प्राप्त पुरुष ही वास्तव में संत-पद के योग्य है | ऐसे संतों को कोई-कोई तो विनोद में भगवान से भी बढ़कर बता दिया करते है | तुलसीदास जी महाराज कहते है

मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा | राम ते अधिक राम कर दासा |

राम सिन्धु घन सज्जन धीरा | चन्दन तरु हरि संत समीरा ||

 ‘भगवान समुद्र है तो संत मेघ है, भगवान चन्दन है तो संत समीर (पवन) है | इस हेतु से मेरे मन में ऐसा विश्वाश होता है की राम के दास राम से बढ़कर है |’ दोनों द्रष्टान्त पर ध्यान दीजिये | समुद्र जल से परिपूर्ण है, परन्तु वह जल किसी काम में नहीं आता | न कोई उसे पीता है और न उससे खेती ही होती है | परन्तु बादल जब उसी समुद्र से जल को उठाकर यथायोग्य बरसाते है तो केवल मोर, पपीहा और किसान ही नहीं-सारे जगत में आनन्द की लहर बह जाती है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!