※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 4 अगस्त 2013

संत-महिमा-१०-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, त्रयोदशी, रविवार, वि० स० २०७०

 

संत की विशेषता



गत ब्लॉग से आगे….इसी प्रकार परमात्मा सच्चिदानंदघन सब जगह विद्यमान है, परन्तु जबतक परमात्मा के तत्व को जाननेवाले भक्तजन उनके प्रभाव का सब जगह विस्तार नहीं करते, तब तक जगत के लोग परमात्मा को नहीं जान सकते | जब महात्मा संत पुरुष सर्वसद्गुणसागर परमात्मा से समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्द आदि गुण लेकर बादलों की भांति संसार में उन्हें बरसाते है, तब जिज्ञासु साधकरूप मोर, पपीहा, किसान ही नहीं, किन्तु सारे जगत के लोग उससे लाभ उठाते है |

भाव यह है की भक्त न होते तो भगवान की गुणगरिमा और महत्वप्रभुत्व का विस्तार जगत में कौन करता ? इसलिये भक्त  भगवान से ऊचे है | दूसरी बात यह है की सुगन्ध चन्दन में ही है, परन्तु यदि वायु उस सुगन्ध को वहाँ करके अन्य वृक्षों तक नहीं ले जाता तो चन्दन की गन्ध चन्दन में ही रहती, नीम आदि वृक्ष कदापि चन्दन नहीं बनते | इसी प्रकार भक्तगण यदि भगवान की महिमा का विस्तार नहीं करते तो दुर्गुण, दुराचारी मनुष्य भगवान् के गुण और प्रेम को पाकर सद्गुणी, सदाचारी नहीं बनते |

इसलिए भी संतों का दर्जा भगवान से बढ़कर है | वे संत जगत के सारे जीवों में समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्द का विस्तार कर सबको भगवान के सदृश बना देना चाहते है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!