|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, चतुर्दशी, सोमवार,
वि० स० २०७०
संत की दया
गत ब्लॉग से आगे…. उन महात्माओं में कठोरता, वैर और द्वेष का
तो नाम ही नहीं रहता | वे इतने दयालु होते है की दुसरे के दुःख को देख कर उनका
ह्रदय पिघल जाता है | वे दुसरे के हित को ही अपना हित समझते है | उन पुरुषों में
विसुद्ध दया होती है | जो दया, कायरता, ममता, लज्जा, स्वार्थ और भय आदि के कारण की
जाति है, वह शुद्ध नहीं है | जैसे भगवान की अहेतुकी दया समस्त जीवों पर है इसी
प्रकार महापुरुषों की अहेतु दया सब पर होती है | उनकी कोई कितनी ही बुराई क्यों न
करे, बदला लेने की इच्छा तो उनके ह्रदय में होती ही नहीं | कही बदला लेने की-सी
क्रिया देखि जाती है, तो वह भी उसके दुर्गुणों को हटाकर उसे विसुद्ध करने के लिए
ही होती है | इस क्रिया में उनकी दया छिपी रहती है | जैसे माता-पिता गुरुजन, बच्चे
के सुधार के लिए स्नेहपूर्ण ह्रदय से उसे दण्ड देते है इसी प्रकार संतों में भी
कभी-कभी क्रिया होती है, परन्तु इसमें भी परम हित भरा रहता है | वे संत करुणा के
भण्डार होते है | जो कोई उनके समीप जाता है, वह मानो दया के सागर में गोते लगाता
है | उन पुरुष के दर्शन, भाषण, स्पर्श और चिन्तन में भी मनुष्य उनके दयाभाव को
देखकर मुग्ध हो जाता है |
वे जिस मार्ग पर निकल पडते
है, मेघ की ज्यो दया की वर्षा करते हुए ही निकलते है | मेघ सब समय और सब जगह नहीं
बरसता, परन्तु सन्त तो सदा सर्वत्र बरसते ही रहते है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!