|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, अमावस्या, मंगलवार,
वि० स० २०७०
संत की दया
गत ब्लॉग से आगे…. उनका दर्शन, भाषण, चिन्तन और स्पर्श से सारे जीव
पवित्र हो जाते है, उनके चरण जहाँ टिकते है, वह भूमि पावन हो जाती है | उनके चरणों से स्पर्श की हुई रज स्वयं पवित्र
होकर दूसरों को पवित्र करने वाली बन जाती है | उनके द्वारा देखे हुए, चिन्तन किये
हुए और स्पर्श किये हुए पदार्थ भी पवित्र हो जाते है | फिर उनके कुलकी विशेषत: उन्हें जन्म देने वाली माता-पिता की तो
बात ही क्या है | ऐसे महापुरुष जिस देश में जन्मते है और शान्त होते है, वे देश
तीर्थ माने जाते है | आजतक जितने तीर्थ बने है, वे सब परमेश्वर और परमेश्वर के
भक्तों के निमित से ही बने है | इतना ही नहीं, सब लोको को पवित्र करने वाले तीर्थ
भी उनके चरणस्पर्श से पवित्र हो जाते है |
धर्मराज युधिष्टर महात्मा विधुर से कहते है ‘हे स्वामिन ! आप-सरीखे भगवतभक्त
स्वयं तीर्थ रूप है | (पापियों के द्वारा कलुषित हुए) तीर्थों को आपलोग अपने ह्रदय
में स्थित भगवान श्रीगदाधर के प्रभाव से पुन: तीर्थत्व प्रदान करा देते है |’
(श्रीमद्भागवत १|१३|१०)
‘जिसका चित अपार सवित्सुखसागर परब्रह्म
में लीन है, उसके जन्म से कुल पवित्र होता है, उसकी जननी कृतार्थ होती है
और पृथ्वी पुण्यवती होती है |’ (स्कन्द० महेष्वर० कौमार० ५५|१४०)
यह सब उनके द्वारा स्वाभाविक ही होता है, उन्हें करना नहीं पडता | भगवान तो
भजने वाले लो भजते है, परन्तु वे दयालु संत नहीं भजने वाले, यहाँ तक की गाली देने
और अहित करने वाले का भी हित ही करने में तुले रहते है | कुल्हाड़ा चन्दन को काटता
है, पर चन्दन उसे स्वाभाविक ही अपनी सुगन्ध दे देता है |
काटइ परसु मलय सुनु भाई |
निज गुन देइ सुगन्ध बसाइ ||
शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!