|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी,बुधवार, वि०स० २०७०
*धर्मके
नामपर पाप*
गत ब्लॉग
से आगे.......सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए सबसे
बड़ा कर्तव्य है पातिव्रत-धर्मका पालन करना—शरीर और मनसे पति के अनुकूल आचरण करना,
सब तरह से पति को प्रसन्न करने की चेष्टा करना और उसी की आज्ञा से, उसी की
प्रसन्नता के लिए घर के अन्य लोगों की तथा अतिथियों की श्रद्धा और प्रेमपूर्वक
सेवा करना | ईश्वरभक्ति, सद्गुण-सदाचारका सेवन,
दुर्गुण-दुराचारका त्याग तथा सेवा—इनमें सबका अधिकार है | परन्तु सौभाग्यवती
स्त्रियों के लिए तो पति को ही ईश्वर का प्रतिनिधिरूप मानकर पातिव्रत-धर्मका पालन
ही मुख्य कर्तव्य है | उपर्युक्त साधनों से जिस वस्तु की प्राप्ति होती
है, सौभाग्यवती स्त्री को ईश्वरबुद्धिसे केवल पति की सेवा करने से ही वह वस्तु
प्राप्त हो जाती है | ऐसी दशा में पति को छोड़कर सौभाग्यवती स्त्री को कहीं अन्यत्र
जाने की आवश्यकता नहीं हैं | उसके लिए पति ही सबकुछ है | भगवान् की पूजा-अर्चा
आदि भी उन्हें घर ही में रहकर करना चाहिए | भक्ति में
कहीं दिखौआपन नहीं आना चाहिए |
पुरुष के लिए
परस्त्री के साथ और स्त्री के लिए परपुरुष के साथ एकान्तवास, परस्पर हँसी-मजाक या
कामबुद्धि से दर्शन, स्पर्श, सम्भाषण आदि भी व्यभिचार ही माना गया है | इसलिए
कल्याण चाहनेवालों को इन सबसे परहेज रखना चाहिए | स्त्रियों
के साथ पुरुषों को और पुरुषों के साथ स्त्रियों को किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं
रखना चाहिए | अत्यावश्यक होनेपर परस्पर अत्यन्त पवित्रभाव से बातचीत और प्रणामादि
व्यवहार हो सकता है | इससे अधिक सम्बन्ध वांछनीय नहीं हैं | मनुजी महाराज
ने तो अपनी माता, बहिन, पुत्री आदि के साथ भी एकान्त में बैठने तक को मना किया है;
क्योंकि यद्यपि इन सबके साथ हमारा स्वाभाविक ही परम पवित्र सम्बन्ध है, फिर भी
इन्द्रियाँ बड़ी बलवान हैं; वे बड़े-बड़े मनस्वी तथा विचारवान पुरुषों के मन को भी
आकर्षित कर लेती हैं—
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् |
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ||
(मनु०
२ | २१५)
ऐसी दशा
में स्त्रियों को परपुरुष से और पुरुषों को परस्त्री से अलग ही रहना चाहिए | इसी
में दोनों का भला है |
उपर्युक्त कथन से कोई यह न समझे कि मैं
स्त्रियों के लिए भजन-ध्यान, व्रत-उपवास आदि करना तथा कथा-कीर्तन आदि में सम्मिलित
होना बुरा समझता हूँ | इन्हें बहुत उत्तम मानता हुआ भी मैं इस बुरे समय को और
पुरुषजाति की नीच प्रवृत्ति को देखकर एक स्थान पर बहुत-सी स्त्रियों के लिए एकत्र
होने तथा किसी के घरपर, देवालय में अथवा तीर्थस्थान पर एकत्र होकर
स्वतन्त्रतापूर्वक कथा-कीर्तन के उद्देश्य से भी गाने, बजाने, नाचने आदि का विरोध
करता हूँ; क्योंकि इसका परिणाम बहुधा विपरीत होता है | स्त्रियों के लिए मैं यही
ठीक समझता हूँ कि वे अपने घरही में रहकर इन सब साधनों को करें, कहीं अन्यत्र जायँ
तो अपने घरवालों के साथ जायँ, अकेले कहीं न जायँ | वर्तमान युग स्त्रियों के लिए
विशेष भयानक है | उनके लिए पद-पदपर खतरा है | ऐसी स्थिति में उनके सतीत्व की रक्षा
के लिए विशेष सावधानी की आवश्यकता है |......शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!