※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक शुक्ल एकादशी, बुधवार, वि०स० २०७०

**श्रीमद्भगवद्गीता**
        जिस प्रकार बालकों के लिए पाठ्यक्रम में रामचरितमानस की उपयोगिता है, उससे भी बढ़कर गीता की उपयोगिता है | गीता की संस्कृत बहुत सरल और मधुर है | श्लोकों के भाव हृदयग्राही और पक्षपातरहित हैं | उसमें थोड़े में ही परमात्मा का तत्त्व, रहस्य तथा शिक्षा का सार भरा हुआ है | गीता नित्य-नवीन जीवन पैदा करनेवाली तथा मनुष्य में मनुष्यत्व का भाव लानेवाली है | इसमें गागर में सागर की भांति ज्ञान, वैराग्य,योग, सद्गुण, सदाचार आदि अध्यात्मविषयक तो है ही, इसके सिवा शारीरिक, बौद्धिक, व्यावहारिक तथा नैतिक शिक्षा और उपदेश भी भरा हुआ है |
         शारीरिक शिक्षा का अभिप्राय है शरीर-विषय की उन्नति की शिक्षा | सतरहवें अध्याय के आठवें, नवें और दसवें श्लोकों में जो सात्त्विक, राजस और तामस आहार बतलाया है, उनमें से राजस-तामस का त्याग करके सात्त्विक का सेवन करना शारीरिक उन्नति का भी हेतु है तथा छठे अध्याय के १६ वें और १७ वें श्लोकों में योग के प्रकरण में जो अनुचित आहार-विहार के त्याग और उचित सेवन की बात है, वह शारीरिक आरोग्य और संगठन की दृष्टि से भी उपयोगी है | इसी प्रकार अन्य जहाँ-कहीं शरीर-संगठन, आरोग्य और आयु-वृद्धि के भाव हैं, वे सब शारीरिक उन्नति में लिए जा सकते हैं |
         बौद्धिक शिक्षा से अभिप्राय है बुद्धि को तीक्ष्ण, निर्मल और सात्त्विक बनानेवाली शिक्षा | तेरहवें अध्याय के तीसरे और चौथे श्लोकों में अर्जुन को दार्शनिक विषय सुनने की प्रेरणा करके उसके बाद जो आदेश दिया है, वह बुद्धि को तीक्ष्ण और निर्मल करनेवाला है | इसी प्रकार अठारहवें अध्याय के २०वें, २१ वें और २२ वें श्लोकों में सात्त्विक, राजस, तामस ज्ञान का तथा ३० वें, ३१ वें और ३२ वें श्लोकों में बुद्धि का वर्णन है | उनमें से राजसी-तामसी ज्ञान और बुद्धि का त्याग करके सात्त्विक ज्ञान और सात्त्विक बुद्धि का ग्रहण करनेसे बुद्धि तीक्ष्ण और निर्मल होती है | भगवान् ने कहा है—
सर्वभूतेषु         येनैकं       भावमव्ययमीक्ष्यते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ||
(१८ | २०)
‘जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान |’
प्रवृत्तिं      निवृत्तिं    कार्याकार्ये  भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ||
(१८ | ३०)
‘हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धनको और मोक्ष को यथार्थ जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है |’
         यह बौद्धिक शिक्षा है | इसी प्रकार जहाँ-कहीं भी बुद्धि के तीक्ष्ण, निर्मल और सात्त्विक होने का प्रकरण है, वह सब बौद्धिक शिक्षा का विषय समझना चाहिए |
         जिस व्यवहार से मनुष्य की उन्नति हो, वास्तव में वही असली व्यवहार है | इस प्रकार की शिक्षा व्यावहारिक शिक्षा है | भगवान् ने अर्जुन को दूसरे अध्याय के ३१ वें से ३८ वें और अठारहवें अध्याय के ४१ वें से ४८ वें तक के श्लोकों में जो उपदेश दिया है, उसमें व्यवहार को लेकर शिक्षा की बातें हैं, उनसे व्यावहारिक शिक्षा भी लेनी चाहिए |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!