※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण प्रथमा, सोमवार, वि०स० २०७०

** श्रीमद्भगवद्गीता **
गत ब्लॉग से आगे.......न्याययुक्त बर्ताव करना नीति है और इस विषय की शिक्षा नैतिक शिक्षा है | पहले अध्याय के तीसरे से ग्यारहवें तक द्रोणाचार्य के प्रति दुर्योधन के वचनों में राजनीति भरी है | दुर्योधन कहता है—
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ||
(१ | ३)
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये |’
        यहाँ ‘हे आचार्य ! व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये’—इस कथन का यह भाव है कि यद्यपि हमारी सेना महान है, तथापि पांडवों ने व्यूहकी रचना इस प्रकार की है कि उनकी सेना अल्प होनेपर भी महान दीखती है | आप देखिये तो सही, उनकी कैसी अद्भुत चातुरी है |
        और ‘आपके शिष्य’—यह कहने का आशय है कि हमारी सेना की व्यूह-रचना तो इससे भी बढ़कर होनी चाहिए; क्योंकि उनकी सेना की व्यूह-रचना करनेवाला धृष्टद्युम्न आपका शिष्य है, आप उसके आचार्य है; जब आपके शिष्य की ऐसी रचना है तो फिर आपकी रचना तो उससे भी विशेष होनी चाहिए तथा धृष्टद्युम्न को द्रुपदपुत्र कहकर दुर्योधन द्रुपद के साथ जो द्रोणाचार्य का वैर था, उस वैर को याद दिलाते हुए युद्ध के लिए आचार्य को जो जोश दिला रहा है, जिससे कि वे तेजी के साथ युद्ध करें |
         एवं धृष्टद्युम्न को बुद्धिमान कहने का अभिप्राय यह है कि वह यद्यपि आपके मारने के लिए उत्पन्न हुआ था तो भी आपका शिष्य बनकर उसने आपसे ही युद्धविद्या सीखी, यह उसकी कैसी बुद्धिमत्ता है !
         नीतिकुशल दुर्योधन के वचनों में इसी प्रकार आगे भी चौथे से ग्यारहवें तक के श्लोकों में राजनीति भरी हुई है तथा तीसरे अध्याय के १० वें से १२ वें तक जो ब्रह्माजी के वचन हैं, उनमें शिक्षाप्रद नीति के वचन हैं और जहाँ-कहीं गीता में नीति की बात है, उससे नीति की शिक्षा लेनी चाहिए |
        गीता में ऐसी रहस्यमयी शिक्षा भरी हुई है कि जिससे मनुष्य इस लोक में न्याययुक्त अर्थ की सिद्धि करके अपना शरीर-निर्वाह और मरने पर परलोक में उत्तम-से-उत्तम गति लाभ कर सकता है | ऐसा उपदेशप्रद ग्रन्थ संस्कृत भाषा में भी दूसरा कोई देखने में नहीं आता, फिर अन्य भाषाओं की तो बात ही क्या है ! इसकी संस्कृत भाषा और कविता का लालित्य आकर्षक है | जो सदाचारी विद्वान् इसकी गंभीरता में गोता लगाते हैं, उनको इसमें से नये-नये उपदेशरत्न मिलते ही रहते हैं | गीता सब शास्त्रों का सार है | इसकी महिमा जितनी गाई जाय, उतनी ही थोड़ी है | स्वयं श्रीवेदव्यासजी ने कहा है—
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः |
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ||
(महा० भीष्म० ४३ | १)
‘गीता का ही भली प्रकार से श्रवण, कीर्तन, पठन-पाठन, मनन और धारण करना चाहिए, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है; क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमल से निकली हुई है |’
          जिस प्रकार दर्शनशास्त्र के अवलोकन से बुद्धि तीक्ष्ण होती है, उससे भी बढ़कर इस गीताशास्त्र के अनुशीलन से बुद्धि तीक्ष्ण और निर्मल होती है; क्योंकि गीता में दार्शनिक विषय भी उच्चकोटि का है | योग, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शन-ग्रंथो में जो लाभप्रद बातें हैं, उनका तथा श्रुति-स्मृतियों का भी सार इस गीताशास्त्र में भगवान् कहा है | तेरहवें अध्याय के तीसरे-चौथे श्लोकों में भगवान् अर्जुन को सुनने के लिए सचेत करते हुए कहते हैं—
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् |
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ||
‘वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है-वह सब संक्षेप में मुझसे सुन |’
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् |
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ||
‘यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेद-मंत्रो द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभांति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदोद्वारा भी कहा गया है |’ |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!