※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, मंगलवार, वि०स० २०७०

** श्रीमद्भगवद्गीता **
गत ब्लॉग से आगे.......गीता के रहस्य और तत्त्व को जाननेवाले सदाचारी विद्वान्, साधु-महात्माओं तथा शिक्षकों ने एवं महात्मा गाँधीजी ने भी इसकी भूरि-भूरि महिमा गाई है | अतएव बालकों के लिए पाठ्यक्रम में गीता का अध्ययन अवश्य रखना चाहिए |
         ऋषिकेश में गीता-परीक्षा-समिति भी कार्य कर रही है, उसके अनुसार पाठशालाओं और स्कूलों में बालकों को गीता की परीक्षा दिलाई जा सकती है |
        तीसरी श्रेणी के बालकों को गीता की प्रवेशिका-परीक्षा दिला सकते हैं, जिसमें केवल दूसरे तथा तीसरे अध्याय को साधारण अर्थसहित कंठस्थ करना होता है | चौथी श्रेणी के बालकों को गीता की प्रथमा परीक्षा दिलावें,जिसमें गीता के प्रथम से छठे अध्याय तक है, जिसका सालभर में अर्थसहित कंठस्थ होना सहज है; क्योंकि यदि प्रतिदिन एक श्लोक भी कंठस्थ किया जाय तो भी सालभर में छः अध्याय कंठस्थ हो सकते हैं | पांचवीं कक्षा में गीता की मध्यमा का प्रथम खण्ड दिलावें, जिसमें अध्याय १ से १२ तक अर्थसहित कंठस्थ करना तथा गीता-तत्त्वविवेचनी के आधार पर पहले अध्याय की व्याख्या का अध्ययन करना होता है | इसमें से १ से ६ तक का तो प्रथमा में अध्ययन किया ही जा चूका है, बाकी छः अध्याय ही रह जाते हैं, उनका सालभर में अध्ययन करना कोई कठिन नहीं | छठी कक्षा में गीता की मध्यमा का द्वितीय खण्ड दिलावें जिसमें अ० १ से १८ तक अर्थसहित कंठस्थ करना तथा गीता-तत्त्वविवेचनी अ० २, ३, ४, की टीका है | इसमें भी १ से १२ तक का तो प्रथमा और मध्यमा प्रथम खण्डमें अध्ययन हो ही चूका है, बाकी छः अध्याय ही रह जाते हैं उनका सालभर में अध्ययन करना कोई कठिन नहीं | सातवीं कक्षा में गीता की मध्यमा का तृतीय खण्ड दिलावें, जिसमें प्रधानतया गीता-तत्त्वविवेचनी अ० ५ से ९ तक की टीका है | आठवीं कक्षा में गीता की उत्तम परीक्षा दिलावें, जिसमें प्रधानतया गीता-तत्त्वविवेचनी अध्याय १० से १८ तक की टीका है तथा नवीं और दसवीं कक्षाओं में गीताविशारद की परीक्षा दिलावें, जिसमें कई टीकाओं का तुलनात्मक अध्ययन विशेषरूप से रखा गया है | गीता-परीक्षा-समिति के पाठ्यक्रम की विशेष जानकारी के लिए नियमावली ऋषिकेश से मँगाकर देख सकते हैं |
         यदि ऐसा न हो सके तो सधारण तौर पर तो गीता अवश्य ही रखनी चाहिए | दूसरी कक्षा में अध्याय १, २; तीसरी कक्षा में अ० ३, ४; चौथी कक्षा में अध्याय ५, ६; पाँचवीं कक्षा में अध्याय ७,८; छठी कक्षा में अध्याय ९, १०; सातवीं कक्षा में अध्याय ११, १२; आठवीं कक्षा में अध्याय १३, १४; नवीं कक्षा में अध्याय १५, १६ और दसवीं कक्षा में अध्याय १७, १८—इस प्रकार क्रम रखकर भी पढ़ा सकते हैं | यह क्रम बहुत ही साधारण है; क्योंकि सालभर में केवल दो अध्यायों का ही अध्ययन करना होता है और इससे गीता का ज्ञान बहुत सहज ही हो सकता है | साथ-साथ अर्थ और भाव भी सिखलाना चाहिए, जिससे उनके जीवन पर अच्छा असर हो और उनके आचरणों का सुधार हो |
         सरकारसे, शिक्षकों से और दानी सज्जनों से हमारा निवेदन है कि वे गीता का पठन, अध्ययन, मनन और अनुभव करके स्वयं इसके उपदेशों को धारण करें तथा दूसरों को धारण कराने के लिए इसका प्रचार करें एवं स्कूल, कालेज, पाठशाला आदि शिक्षा-संस्थाओं में गीता की पढ़ाई को भी अनिवार्य करने-कराने की विशेष रूप से कोशिश करें |
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!