※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 20 नवंबर 2013

गंदा साहित्य और सिनेमा



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, बुधवार, वि०स० २०७०

** गंदा साहित्य और सिनेमा **
इधर शारीरिक और मानसिक पवित्रता का नाश करने-वाले गंदे साहित्य और मनोरंजन के नाम पर चलनेवाले गंदे चलचित्रों—सिनेमा से हमारे चरित्र का बड़ी बुरी तरह से नाश हो रहा है | चरित्र ही नहीं—समय, अर्थ, स्वास्थ्य तथा धर्म का भी इनके कारण बड़ी तेजी से ह्रास हो रहा है | इनसे समाजभर में आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक और सामाजिक पतन हो रहा है | बहुत-से लोग, जो घर की स्त्रियों को और बाल-बच्चों को थियेटर-सिनेमा आदि में साथ ले जाते हैं, वे बहुत भूल करते हैं | वे अभी इस परिणाम को नहीं सोच रहें हैं कि सिनेमा के बीभत्स और अश्लील चरित्र और चित्रों को देखकर सबकी बुद्धि विचलित और भ्रष्ट हो जाती है | कभी-कभी तो ऐसे अश्लील दृश्य आते हैं कि उन्हें देखकर बच्चे माता-पिता के सम्मुख और माता-पिता बच्चों के सम्मुख लज्जित हो जाते हैं | इसका परिणाम यह होता है कि माता-पिता और बालकों के परस्पर न्यायोचित शील-संकोच का भी ह्रास हो जाता है | स्वास्थ्यपर भी बहुत बुरा असर पड़ता है | धन और मनुष्य-जन्म के अमूल्य समय का अपव्यय तो प्रत्यक्ष है ही |
          यदि यह कहा जाय कि धार्मिक सिनेमा देखने में तो लाभ ही है तो ऐसी बात नहीं है | प्रथम तो सिनेमा में शुरू से लेकर आखिरतक प्रायः सभी लोगों का उद्देश्य दर्शकों के चित्त को आकर्षित करके धन कमाना है | इसलिए उसमें सच्ची धार्मिकता कभी नहीं आ सकती | दूसरे, अभिनेता-अभिनेत्री चाहे कैसे भी हों, उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि वे लोग सब इन्द्रियविजयी हैं और धार्मिक भावना से ही सिनेमा में आये हैं | जवान उम्र, रात-दिन श्रृंगार के वातावरण में रहना, वैसे ही अभिनय करना, शौकीनी तथा विलास के लिए स्वतंत्रता, रूप-सौन्दर्य का विज्ञापन, धनकी अधिकता—ये सभी ऐसे कारण हैं, जो मनुष्य को कर्त्तव्यभ्रष्ट करके प्रमाद में नियुक्त कर सकते हैं | ऐसे वातावरण में रहनेवाले नट-नटियों से शुद्ध धार्मिक भावना की प्राप्ति दर्शकों को होगी, यह आशा करना सर्वथा व्यर्थ है |
         बड़े खेद की बात तो यह है कि कोई-कोई माता-पिता तो धन के लोभ से अपने तरुण बालक-बालिकाओं को सिनेमा के नट-नटी बनाने में भी सहमत हो जाते हैं; जो कि बहुत ही खतरनाक है | वे इस बात को भूल जाते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा | सच्ची बात तो यह है कि जो तरुण-तरुणियाँ सिनेमा-क्षेत्र में अभिनय करते हैं और इसमें धनलाभ तथा मान-सम्मान प्राप्त करके गौरव मानते हैं, वे अपने-आपको विषयभोगरूपी आग में झोंककर स्वयं ही अपना नैतिक और धार्मिक पतन कर रहे हैं ! जैसे सौन्दर्य के लोभी शलभ (फतिंगे) दीपक की शिखा देखकर सुख-भोग की दृष्टि से उसके समीप जाते हैं और तड़प-तड़पकर मरते तथा जलकर भस्म हो जाते हैं, वैसी ही दशा यहाँ होती है | वे कीड़े तो भविष्य के दुष्परिणाम का ज्ञान न होने से सहज ही काल के कलेवा बन जाते हैं, परन्तु जो मनुष्य होकर भी भविष्य के दुष्परिणाम को बिना सोचे नाशवान क्षणभंगुर सांसारिक सुख और भोग के लिए ऐसे कार्यों में सम्मिलित होते हैं, उनके लिए क्या कहा जाय ! ईश्वरने विवेक और बुद्धि दी है, मनुष्य होकर भी हम यदि उस विवेक-बुद्धि से काम न लें तो यह हमारे लिए बहुत ही लज्जा, दुःख और परिताप की बात है |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!