|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, गुरुवार, वि०स० २०७०
** गंदा साहित्य और सिनेमा
**
गत
ब्लॉग से आगे.......रात-दिन जिस प्रकार
के वातावरण में मनुष्य रहता है और जैसा काम करता है, वैसा ही उसका मन बन जाता है |
फिर उसके मन में भी वही वातावरण छा जाता है और बार-बार वही दृश्य सामने आते रहते
हैं | इस निश्चित सिद्धान्त तथा अनुभव के अनुसार गंदे सिनेमा के नट-नटियों के तथा उनके
दर्शकों के मन में भी वैसा ही जगत बन जाता है और उनका सहज ही नैतिक, धार्मिक और
सामाजिक पतन होता है |
आजकल जो गली-गली में दीवालों पर सिनेमा
के श्रृंगारचित्र चिपके रहते हैं, दैनिक, साप्ताहिक तथा मासिक पत्रों में सिनेमाओं
के सचित्र विज्ञापन रहते हैं तथा बड़े-बड़े शहरों में तो बड़ी बारात की तरह बड़े
समारोह और गाजे-बाजे के साथ घूम-घूमकर सिनेमाओं का विज्ञापन किया जाता है, इन
सबको देख-सुनकर स्त्री-पुरुष और बालक-बालिकाओं पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है | उनके मनों में दबे हुए दुर्भाव जाग्रत हो जाते हैं और
नये-नये बुरे भाव और बुरे संस्कार उत्पन्न होते और अपना घर कर लेते हैं, जिससे
उनका जीवन नष्ट हो जाता है | इस प्रकार की हानिकारक मनोरंजन की वृत्ति को,
जो भविष्य में विनाश करनेवाली है, तुरंत रोकने की चेष्टा करनी चाहिए, नहीं तो इनके
बुरे संस्कार जमकर बहुत बुरा परिणाम होना संभव है | कला
और मनोरंजन के नामपर लोगों का इस प्रकार का पतन न तो वस्तुतः किसी सरकार को इष्ट
होना चाहिए, न सिनेमा आदि में अभिनय करनेवालों के हितैषी माता-पिता (अभिभावक) आदि
को ही और न दर्शकों को ही; पर इस समय तो सभी ओर मानो मोह-सा छाया है | देश
का दुर्भाग्य है !
अभिनय
करनेवाली लड़कियों के अंगसंचालन और कामोत्तेजक दृश्यों से युक्त चित्र और चरित्रों
को देखकर हजारों मनुष्य उनपर पाप-दृष्टि करते हैं | इस बात को समझकर उनके
माता-पिताओं को लज्जा आनी चाहिए और अपमान का बोध होना चाहिए | यह
प्रवृत्ति यों ही बढ़ती गयी तो पता नहीं आगे चलकर समाज की क्या दशा होगी | व्यसन
में फँसे हुए लोगों की दुर्दशा की भांति गंदे सिनेमा के शौकीनों का नैतिक, धार्मिक
और सामाजिक पतन ही संभव है |
आजकल सिनेमा की प्रवृत्ति इतनी अधिक बढ़
गयी है कि बहुत से नर-नारी घर-द्वार फूँककर, धर्म-कर्म खोकर, माता-पिता से
लड़-झगड़कर और शील-संकोच, लज्जा-मर्यादा का नाश करके भी सिनेमा देखते हैं | मजदूर
लोग भी मनोरंजन के नाम पर कठिन मजदूरी के पैसे सिनेमा में बरबाद करके अपना पतन
करते हैं और बहुत-से बालक चोरी करके सिनेमा देखते हैं | मनोरंजन के नाम पर समाज
में चौतरफा फैला हुआ यह रोग बड़ा ही भयानक है |
अंग्रेजी सिनेमाओं में तो पात्रों के
अंगसंचालन के साथ नग्न स्वरुप भी दिखाए जाने लगे हैं | इनको देखकर कौन ऐसा संयमी
पुरुष है, जिसके मनमें विकार उत्पन्न होकर पतन न हो | क्या यह वांछनीय है कि
मनोरंजन के नाम पर सिनेमा के इस पाप को यों ही उत्तरोत्तर बढ़ने दिया जाय और हमारा
तरुणसमाज उसका बुरी तरह शिकार होकर अपने जीवन से हाथ धो बैठे और हमारे राष्ट्र का
भविष्य अंधकारमय हो जाय ?
अतः सरकार से
हमारी प्रार्थना है कि इन बातों पर सरकार को ध्यान देना चाहिए और सेंसर-बोर्ड को
बड़ी कड़ाई के साथ काम लेकर इस बुराई की बाढ़ को मजबूत बाँध बाँधकर तुरंत रोक देना
चाहिए; जिससे जनता सामाजिक, नैतिक और आर्थिक हानि से बच सके |......शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!