|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण पञ्चमीं, शुक्रवार, वि०स० २०७०
** गंदा साहित्य और सिनेमा
**
गत
ब्लॉग से आगे......आजकल हमारे कुछ लेखक भी ऐसे
साहित्य का निर्माण कर रहे हैं, जिसको पढ़ने पर पढ़नेवाले के मन में विकार उत्पन्न
हुए बिना नहीं रह सकता ! ऐसे विकारों से बल, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, तेज और आयु का
विनाश होना और नाना प्रकार के रोगों का शिकार हो जाना अनिवार्य हो जाता है |
सिनेमाका असर हमलोगों के वर्तमान जीवन
पर बहुत ही बुरा पड़ रहा है | लोग अपने कपड़े और पोशाक पर भी सिनेमा के चित्र बनाने
लगे हैं तथा जिन कपड़ों को पहनने में भले घर की महिलायें लज्जा करती हैं, उन्हीं
कपड़ों को हमारी युवती बालिकाएँ पहनने लगी हैं
| यह कितना भारी पतन है |
इतना ही नहीं, हमारे समाज में इस समय
नास्तिकता का भी जोरों से प्रचार किया जा रहा है | इसके फलस्वरुप कुछ लोग धर्म,
कर्म, ईश्वर, ज्ञान, वैराग्य, हिन्दू-संस्कृति, सदाचार और सद्गुणों को घृणा की
दृष्टि से देखने लगे हैं तथा बिना सोचे-समझे ही प्राचीन काल से चली आयी हुई आदर्श
मर्यादा को आडम्बर कहने लगे हैं ! यही स्थिति बनी रही तो भविष्य में उच्छृंखलता
तथा धर्मविरोधी वातावरण और अराजकता उत्तरोत्तर बढ़ सकती है | अतः हमें सचेत होकर इस
बढ़ती हुई गति को रोकना चाहिए | इस प्रकार की हानि देखकर भी यदि हमारी आँखें नहीं
खुलेंगी तो फिर कब और कैसे खुलेंगी ?
जब मनुष्य
की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह भले को बुरा और बुरे को भला देखने लगता है, तब
उसका सुधार होना कठिन हो जाता है; क्योंकि जो मनुष्य बुराई को बुराई मानता है,
उसका तो सुधार हो सकता है; किन्तु जो बुराई को भलाई मान बैठता है, उसका सुधार कठिन
है | अतः लोक और परलोक में कल्याण चाहनेवाले
भाई-बहिनों से हमारी यह प्रार्थना है कि उन्हें न तो स्वयं ऐसे नाटक-सिनेमा देखने चाहिए और न अपने
बालक-बालिकाओं को ही दिखाने चाहिए | इनकी बुराइयों को समझकर स्वयं इनका त्याग
करेंगे, तभी अपने बालक-बालिकाओं को रोक सकेंगे | बालक अनुकरण-प्रिय
तो होते ही हैं, पर बुरी बातों का असर उनपर जितना जल्दी होता है उतना अच्छी बातों
का नहीं होता | जितनी बुराइयाँ हैं, आरम्भ में क्षणिक सुखकारक होने से अमृत के
तुल्य दीखती हैं, पर उनका परिणाम विष के तुल्य है और जो भलाइयाँ हैं, वे सधानकाल
में कठिन होने से विष के तुल्य दिखती हैं, पर परिणाम में वे अमृत के तुल्य हैं |
इसलिए जो वर्तमान में सुखदायी प्रतीत होती है, उसी को लोग अज्ञान से ग्रहण करते
हैं | जैसे रोगी कुपथ्य का परिणाम न देखकर कुपथ्य कर लेता है, उसी तरह विषयासक्त
पुरुष भी परिणाम को नहीं देखते और विनाशकारी प्रवृत्तियों में पड़कर अपने जीवन को
पतन के गर्त में डाल देते हैं; किन्तु जब परिणाम में दुःख पाते हैं, तब घोर
पश्चात्ताप करते हैं, पर फिर उस पश्चात्ताप से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता |
अतएव समस्त
नर-नारियों से पुनः सविनय प्रार्थना है कि ऐसे सिनेमा-नाटक आदि को न तो देखना
चाहिए और न किसी को दिखाना चाहिए तथा न इसके लिए अभिरुचि ही पैदा करनी चाहिए |
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!