※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 30 नवंबर 2013

.....गीताजयंती विशेष लेख ....गीता -२-----. एकादशी से एकादशी तक ......


।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष कृष्ण, द्वादशी, शनिवार, वि० स० २०७०
 
.....गीताजयंती विशेष लेख ..... एकादशी से एकादशी तक ......
गीता -२-
१०. श्री गीताजी का काम सत्संग छोड़कर करना भी उत्तम है ।
१२. श्री गीताजी की महिमा, श्रीगीताजी के प्रचार के बराबर लाभदायक    दूसरा काम नहीं है, मेरे को जो कुछ लाभ देखने में आता है, वह श्री गीताजी का प्रभाव है ।
१२. गौ, गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द का नाम । इन पाँचों की शरण से पूरन होवे काम ।। एक-एक की शरण से भी बेडा पार है । इनमे भी गीता और गोविन्द का नाम प्रधान है ।
१३. गीता ज्ञान का प्रवाह है ।
१४. भगवान की प्राप्ति के लिए श्रीगीता जी का अर्थसहित अभ्यास करना चाहिए ।
१५. गीताजी का श्लोक अर्थ, भाव, विषयसहित जो याद करता है, वह पहली कक्षा पास है ।
१६. गंगा तो जो उसमे जाकर स्नान करता है उसी को मुक्त करती है, परन्तु गीता तो घर-घरमें जाकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाती है ।
१७. गीता गायत्री से बढ़कर है, गायत्री जप से मनुष्य की मुक्ति होती है, यह बात ठीक है, किन्तु गायत्री-जप करने वाला भी स्वयं ही मुक्त होता है, पर गीता का अभ्यास करने वाला तो तरन-तारण बन जाता है । जब मुक्ति के दाता स्वयं भगवान ही उसके हो जाते है, तब मुक्ति की तो बात ही क्या है । मुक्ति उसकी चरणधूलि में निवास करती है । मुक्ति का तो वह सत्र खोल देता है ।  
१८. वास्तव में गीताके सामान संसार में यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, संयम और उपवास आदि कुछ नहीं है ।
 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, परमार्थ-सूत्र-संग्रह पुस्तक से, पुस्तक कोड ५४३, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!