※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

.....गीताजयंती विशेष लेख ..गीता -५-... एकादशी से एकादशी तक ......


।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०
 
.....गीताजयंती विशेष लेख ..... एकादशी से एकादशी तक ......
गीता -५-
 
३७. सारे शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्रागट्य भगवान ब्रह्मा जी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान के नाभि कमल से उत्पन्न हुए  । इस प्रकार शास्त्रों और भगवान के बीच में बहुत सा व्यवधान पड गया है, किन्तु गीता तो स्वयं भगवान के मुखारविन्द से निकली है, इसलिए उसे सभी शास्त्रों से बढ़कर कहाँ जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
 
३८. गीता गंगा से भी बढ़कर है । शास्त्रों में गंगास्नान का फल मुक्ति बतलाया गया है । परन्तु गंगा में स्नान करने वाला स्वयं मुक्त हो सकता है । वह दूसरों को तारने की सामर्थ्य नहीं रखता । किन्तु गीता रुपी गंगा में गोता लगाने वाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, वह दूसरों को भी तारने में समर्थ हो
जाता है ।
३९. गीता तो भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई और गीता साक्षात् भगवान नारायण के मुखारविन्द से निकली है ।
 
४०. गीता को हम स्वयं भगवान से भी बढ़कर कहे तो कोई अत्युक्ति न होगी ।
 
४१. गीता भगवान् का प्रधान रहस्यमय आदेश है । ऐसी दशा में उसका पालन करने वाला प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है ।
 
४२. गीता भगवान ला स्वास है, ह्रदय है और भगवान की वांगंहमयी मूर्ती
 है ।
 
४३. गीता में ही भगवान मुक्तकन्ठ से यह घोषणा करते है की जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा वह निसंदेह मुक्त हो जायेगा ।
 
४४. जिसके ह्रदय में, वाणी में, शरीर में तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओं में गीता रमगयी है वह पुरुष साक्षात् गीता की मूर्ती है । उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तन से दुसरे मनुष्य भी परम पवित्र बन जाते है ।
 
४५. गीता ज्ञान का अथाह समुद्र है, इसके अन्दर ज्ञानका अनन्त भण्डार भरा पड़ा है । इसका तत्व समझाने में बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान और तत्वलोचक महात्माओं की वाणी भी कुण्ठित हो जाती है, क्योकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान श्री कृष्ण ही जानते है ।        
    
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, परमार्थ-सूत्र-संग्रह पुस्तक से, पुस्तक कोड ५४३, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!