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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल, द्वितीया, बुधवार,
वि० स० २०७०
.....गीताजयंती विशेष
लेख ..... एकादशी से एकादशी तक ......
गीता -६-
४६. गीता अनन्त भावों का अथाह समुद्र है । रत्नाकर में गहरा
गोता लगाने पर जैसे रत्नों की प्राप्ति होती है, वैसे ही इस गीता-सागर में गहरी
डुबकी लगाने से जिज्ञासुओं को नित्य नूतन विलक्ष्ण भाव-रत्न राशि की उपलब्धि होती
है ।
४७. जैसे वेद परमात्माका नि:श्वास है इसी प्रकार गीता भी
साक्षात् भगवान् का वचन होने से भगवत-स्वरुप ही है । अतएव भगवान की भाँती गीता का
स्वरुप भी भक्तों को अपनी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से भासता है ।
४८. कृपासिंधु भगवान् ने अपने प्रिय सखा भक्त अर्जुन को
निमित बनाकर समस्त संसार के कल्याणार्थ इस अदभुत गीता शास्त्र का उपदेश किया है ।
४९. किसी एक ऐसे ग्रन्थ का अवलम्बन करना उत्तम् है जो सरलता
के साथ मनुष्य को पावन पथपर ला सकता है । मेरी समझ में ऐसा पावन ग्रन्थ
‘श्रीमद्भगवतगीता’ है ।
५०. गीता भगवान के ही श्री मुख का वचनामृत है । गीता में
जितने वचन ‘श्रीभगवानउवाच’ के नाम से हैं उनमे कुछ तो जो श्रुतियों के प्राय:
ज्यों-के-त्यों वचन है । अर्जुन के श्लोकरूप में ही कहे गए थे और अवशेष संवाद
बोलचाल की भाषा में हुआ था जिसको भगवान श्रीव्यासदेवने श्लोकों का रूप दे दिया ।
५१. गीता के सामान संसार में कोई ग्रन्थ नहीं है । सभी मत
इसकी उत्क्रिस्टता स्वीकार करते है, अत: हमे गीता का इतना अभ्यास करना चाहिए की
हमारी आत्मा गीतामय हो जाय ।
५२. गीता का अर्थ समझने के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिये ।
गीता का खूब अभ्यास करे, जिस समय पाठ करे उस समय अर्थ पर खूब ध्यान रखे, पहले अर्थ
पढ़ ले, पीछे श्लोक पढ़े ।
५३. गीता के श्लोकों में कोई नयी बात जान पड़े तो उसे
कंठस्थ कर ले । जिन पुरुषों को धर्म के
विस्तृत ग्रन्थों को देखने का पूरा समय नहीं मिलता है, उनको चाहिये की वे गीता का
अर्थसहित अध्ययन अवश्य ही करे और उसके उपदेशों का पालन करने में तत्पर हो जायँ ।
५४. गीता जी में सैकड़ो ऐसे श्लोक है जिनमे से एक दो भी
पूर्णतया धारण करने से मनुष्य मुक्त हो जाता है फिर सम्पूर्ण गीता की तो बात ही
क्या है । जैसे गीता अध्याय २ | ७१; ३ | ३०; ४|३४; ५|२९; ६|४७; ७|१४; ८|१४; ९|३२;
१०|९-१०; ११|५४, ५५; १२|८; १३|१०; १४|१९,२६; १५|१९; १६|१; १७|१६; १८|६५-६६;
इत्यादि ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, परमार्थ-सूत्र-संग्रह पुस्तक से, पुस्तक कोड ५४३, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!