※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

.....गीताजयंती विशेष लेख ......गीता -८-....... एकादशी से एकादशी तक ......


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
 
.....गीताजयंती विशेष लेख ..... एकादशी से एकादशी तक ......

गीता -८-

६६. ज्ञान कर्म और भक्ति – तीनों का का है सम्यक्तया प्रतिपादन हुआ है 

६७. गीता अधिकारी – भेद से ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों निष्ठांओं को मुक्ति के दो स्वतन्त्र साधन मानती है ।

६८. गीता वर्णाश्रम को मानती है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र – चारों वर्म अपने-अपने स्वाभाविक वर्ण-धर्म का स्वार्थरहित निष्काम भाव से भगवतप्रीत्यर्थ आचरण करे तो उनकी मुक्ति होना गीता को सर्वथा मान्य है ।

६९. गीता जन्म-कर्म दोनों से वर्ण मानती है । (गीता ४|१३)

७०. गीता मूर्ती पूजा को मानती है, अध्याय ९|२६ और ९|३४ के श्लोक से यह प्रमाणित है ।

७१. गीता वेदों को मानती है और उनको बहुत ऊँची दृष्टि से देखती है । गीता में जितना सद्भाव  यानी गुण बतलाये गए है, उन सबमे एक ऐसा गुण है जिस एक से ही महापुरुष की पहचान हो जाती है, उसका नाम है “समता” ।

७२. व्यवहार में परमार्थ के प्रयोग की अद्भुत कला गीता में बतलायी गयी है ।

७३. जिनको जो विषय प्रिय है, जो सिद्धांत मान्य है वही गीता में भासने लगता है ।  

७४. श्रीमदभगवतगीता की ध्वजा फहरा रही है, फिर हमारी अवनति क्यों होनी चाहिये ।

७५. गीतोक्त ज्ञान की उपलब्धि हो जाने पर और कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता ।  
               

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, परमार्थ-सूत्र-संग्रह पुस्तक से, पुस्तक कोड ५४३, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!