।।
श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल, चतुर्थी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
.....गीताजयंती विशेष
लेख ..... एकादशी से एकादशी तक ......
गीता -८-
६६. ज्ञान कर्म और भक्ति – तीनों का का है सम्यक्तया
प्रतिपादन हुआ है ।
६७. गीता अधिकारी – भेद से ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों
निष्ठांओं को मुक्ति के दो स्वतन्त्र साधन मानती है ।
६८. गीता वर्णाश्रम को मानती है । ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शुद्र – चारों वर्म अपने-अपने स्वाभाविक वर्ण-धर्म का स्वार्थरहित
निष्काम भाव से भगवतप्रीत्यर्थ आचरण करे तो उनकी मुक्ति होना गीता को सर्वथा मान्य
है ।
६९. गीता जन्म-कर्म दोनों से वर्ण मानती है । (गीता ४|१३)
७०. गीता मूर्ती पूजा को मानती है, अध्याय ९|२६ और ९|३४ के
श्लोक से यह प्रमाणित है ।
७१. गीता वेदों को मानती है और उनको बहुत ऊँची दृष्टि से
देखती है । गीता में जितना सद्भाव यानी
गुण बतलाये गए है, उन सबमे एक ऐसा गुण है जिस एक से ही महापुरुष की पहचान हो जाती
है, उसका नाम है “समता” ।
७२. व्यवहार में परमार्थ के प्रयोग की अद्भुत कला गीता में
बतलायी गयी है ।
७३. जिनको जो विषय प्रिय है, जो सिद्धांत मान्य है वही गीता
में भासने लगता है ।
७४. श्रीमदभगवतगीता की ध्वजा फहरा रही है, फिर हमारी अवनति
क्यों होनी चाहिये ।
७५. गीतोक्त ज्ञान की उपलब्धि हो जाने पर और कुछ भी जानना
शेष नहीं रह जाता ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, परमार्थ-सूत्र-संग्रह पुस्तक से, पुस्तक कोड ५४३, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!