※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सत्संग और महात्माओं का प्रभाव -९ –


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ शुक्ल, चतुर्दशी, गुरुवार, वि० स० २०७०


 सत्संग और महात्माओं का प्रभाव  -९ –

 

गत ब्लॉग से आगे…..  गीता के तेरहवे अध्याय के पच्चीसवे श्लोक में कहा है-

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:

‘परन्तु इनसे दुसरे, अर्थात जो मन्दबुद्धि वाले पुरुष है, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले पुरुष से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागर को निसंदेह त्र जाते है

इसके पूर्व गीता में यह कहा गया था की कितने ही तो ध्यानयोग के द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करते है,कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और कितने ही कर्मयोग के द्वारा, किन्तु जो पुरुष न ज्ञानयोग जानते है, न कर्मयोग ही जानते है, मूढ़, अज्ञानी है, वे भी उन ज्ञानियों के पास जाकर, उनकी बात सुनकर उसके अनुसार साधन करते है तो वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरुपी संसारसागर से तर जाते है

संसार में अनासक्त जो वीतराग पुरुष है, उनके सँग से भी पुरुष वीतराग हो जाता है विरक्त-वीतराग पुरुषों के स्मरण से चित की वृत्तियाँ एकाग्र हो जाती है, जिससे आगे चलकर उसे आत्मा का ज्ञान तक हो जाता है

महर्षि पतंजली से योगदर्शन के प्रथम पाद के ३७वे सूत्र में कहा है-

‘वीतराग विषयं वा चितम्’

‘वीतराग पुरुष, जिसके चित का विषय है, उसके चित की वृत्तियाँ स्थिर हो जाती है ’ ज्ञानी, महात्मा पुरुष तो वीतराग होकर ही महात्मा बनते है तीव्र वैराग्य और दैवी सम्पदा के लक्ष्ण तो महात्मा में साधनअवस्था में आ जाते है दैवी सम्पदा की व्याख्या गीता के सोलहवे अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक में की गयी है .... शेष अगले ब्लॉग में.

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!