※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

भारतका परम हित



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ शुक्ल चतुर्थी, सोमवार, वि०स० २०७०


** भारतका परम हित **
इस समय सभी ओर उन्नति की पुकार मची हुई है; परन्तु ‘यथार्थ उन्नति’ क्या है और किसमें है, इसका विचार बहुत कम किया जाता है | धन, विलास, भौतिक सुख या पद में उन्नति नहीं है | वास्तविक उन्नति उसी में है, जिसमें मनुष्यों का जीवन स्तर नैतिकता तथा सदाचार की दृष्टि से ऊँचा हो, उनमें ‘सर्वभूतहित’ की सच्ची भावना जाग्रत हो, इन्द्रियोंपर और मनपर स्वामित्व हो, जीवनमें संयम और सेवा का स्वभाव हो और जिससे इस लोक तथा परलोक में सबका सब प्रकार से हित होता हो और साथ ही मानव अपने परम हित परमात्मा की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो | यही यथार्थ उन्नति है | इस उन्नति का परम साधन है—‘धर्म और ईश्वरपर निष्ठा एवं विश्वास’ |
        जबतक भारत में धर्म और ईश्वर निष्ठा-विश्वास रहा, मनुष्य ईश्वर के आश्रित और धर्मपरायण रहे, तबतक भारत की उत्तरोत्तर उन्नति होती रही | ज्यों-ज्यों इसमें कमी आयी, त्यों-ही-त्यों भारत अवनति के गर्त में गिरता गया | आज के भारत की तो वस्तुतः बहुत शोचनीय स्थिति है | धर्म और ईश्वर के तत्त्व को न समझने के कारण बहुत लोग तो धर्म और ईश्वर को मानते ही नहीं, कुछ लोग धर्म और ईश्वर को स्वीकार तो करते हैं पर हृदय से नहीं मानते | इसलिए उनकी स्वीकृति भी कथनमात्र की होती है और इसी कारण उनको विशेष लाभ भी नहीं होता | माननेवालों में कुछ लोग ऐसे हैं, जिनमें आत्मबल नहीं है | जिनमें यत्किंचित आत्मबल है, उनकी संख्या थोड़ी है और उनकी चलती भी नहीं | शिक्षा में धर्म का विशिष्ट स्थान न रहने से शिक्षित पुरुष—जो समाज के सभी क्षेत्रों में स्वाभाविक अग्रणी होते हैं—धर्म और ईश्वर को महत्त्व नहीं दे पाते | इन्हीं सब कारणों से यथार्थ उन्नति की दृष्टि से भारत का दिनोंदिन ह्रास और विनाश ही हो रहा है |
        धर्म और ईश्वर में निष्ठा न होने के कारण ही ‘यथार्थ कर्तव्य’ की ओर ध्यान कम हो गया और अनर्थकारी अर्थ की प्रधानता बढ़ गयी | सरकारी अधिकारीयों में घूस-रिश्वत का प्रसार हो गया | अन्याय तथा असत-मार्ग से आनेवाले धनसे सबकी ग्लानि निकल गयी | चारों ओर चोरबाजारी, ठगी और भ्रष्टाचार का विस्तार हो गया | कर्तव्यपालन के स्थान में आरामतलबी और धोखाधड़ी आ गयी | इसी से मजदूर-मालिकों का पवित्र सम्बन्ध भी दूषित हो गया | स्कूल-कालेजों में गुरु-शिष्य का पवित्र आदर्श नष्ट हो गया | यों सर्वत्र उच्छृंखलता, स्वेच्छाचारिता और धर्महीनता आ गयी | असदाचार और अनैतिकता की यह बाढ़ न रुकी तो पता नहीं हमलोगों की क्या दशा होगी |
         इसी आर्थिक और लौकिक महत्ता के प्रभाव से हमारी सरकार को भी भांति-भांति के नये-नये टैक्स लगाने को बाध्य होना पड़ रहा है | जब व्यय का बहुत बड़ा आयोजन सामने होगा, तब उसकी पूर्ति के लिए टैक्स लगाने और बढ़ाने पड़ेगे ही; परन्तु जिन टैक्सों से गरीब तथा मध्यवित्त जनता का जीवन कष्टमय हो जाता हो, जिनसे ज्ञान-प्रसार में बाधा आती हो, ऐसे टैक्स न लगाये जायँ तो बहुत उत्तम है | जैसे उदाहरण के लिए गेहूँ, चावल, चीनी, नमक, कपड़ा आदि आवश्यक खाने-पहनने की चीजों पर टैक्स लगाने से गरीब तथा मध्यवित्त लोगों का जीवन-निर्वाह बहुत कठिन हो रहा है | हमारे पास ऐसे बहुत से लोग आते हैं और अपनी कठिन परिस्थिति बतलाते हैं | इसी प्रकार कागज़, कापी, पुस्तकादि पर टैक्स लगने से गरीब विद्यार्थियों का व्यय-भार बढ़ गया है | पार्सल, रजिस्ट्री, मनीआर्डर आदि की दर बढ़ जाने से जनता की कठिनाई बढ़ गयी है | अतएव हम अपनी सरकार से विनयपूर्वक अनुरोध करते हैं कि वह गम्भीरता से इस विषयपर विचार करे और उचित व्यवस्था करे, जिससे जनता का जीवन बढ़ती हुई कठिनाइयों से छुटकारा पा सके |....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तकसे कोड ८१४, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!