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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ शुक्ल, सप्तमी, गुरुवार, वि० स० २०७०
सत्संग और महात्माओं का
प्रभाव -२ –
गत ब्लॉग से आगे…..सत्संग के चार प्रकार है । पहले नम्बर के सत्संग का अर्थ समझना चाहिये-सत
परमात्मा में प्रेम । सत यानी परमात्मा और सँग यानी
प्रेम । यही सर्वश्रेष्ठ सत्संग है । सत यानी परमात्मा के सँग रहना अर्थात परमात्मा का
साक्षात् दर्शन करके भक्त का उनके साथ रहना ही सर्वोत्तम सत्संग है । यही सत्पुरुषों का सँग है; क्योकि सर्वश्रेष्ठ
सत-पुरुष तो एक भगवान् ही है । इस सत्संग के सामने स्वर्ग की तो बात ही क्या है, मुक्ति भी कोई चीज नही है । श्रीतुलसीदासजी ने इस विशेष सत्संग की बड़े मार्मिक
शब्दों में महिमा गायी है । वे
कहते है-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरीअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग ।।
‘हे तात ! स्वर्ग और मुक्ति के सुख को तराजू के एक
पलड़े पर रखा जाय और दुसरे पलड़े पर क्षणमात्र के सत्संग को रखा जाय तो भी एक क्षण
के सत्संग के सुख के समान भी उन दोनों का सुख मिलकर नही होता ।’ ।.... शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!