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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण , चतुर्थी, बुधवार,
वि० स० २०७०
वर्तमान दोषों के निवारण
की आवश्यकता -२-
गत ब्लॉग से आगे…..आय-कर, बिक्री-कर, सम्पति-कर,
दान-कर, विवाह-कर आदि करों की भरमार के कारण लोगों की नियत बुरी होकर उनमे झूठ,
कपट, चोरी, बेईमानी, धोखेबाजी, घूसखोरी आदि जोरों से बढ़ रही है । इन सब दोषों के दूर होने के का कोई सरल उपाय समझने
में नही आया । किसी व्यापारी से न्यायसंगत
व्यवसाय करने के लिए कहा जाता है तो उसका यही उत्तर मिलता है की इस ‘युग में
न्यायसंगत व्यवसाय चल ही नही सकता, लाख रूपये से अधिक वार्षिक आमदनी होने पर सरकार
ही अनेक प्रकार से करों द्वारा अधिकाँश रूपये ले लेती है । अत: इस ज़माने में न्यायपूर्वक व्यवसाय करके तो कोई
लखपति-करोडपति हो ही नही सकता ।’ किन्तु मनुष्य को इस प्रकार कभी निराश नही होना चाहिये । लखपति-करोडपति
बनने की लालसा और लोभ का त्याग करने पर न्याययुक्त व्यवसाय हो सकता है ।
बहुत से लोग चोरबाजारी करके प्रतिवर्ष लाखों रूपये
एकत्र करते और सरकार से छिपाकर गुप्तरूप से रखते है । वे उनकी रक्षा भी बड़ी कठिनाई से कर पाते है । किसी को न्याययुक्त सरकारी कर देने के लिये कहाँ
जाता है तो यह उत्तर मिलता है की ‘नाना प्रकार के झूठ-कपट, बेईमानी और इतना
परिश्रम करके रूपये हम सरकार के लिए थोड़े ही उपार्जन करते है । सरकार का यदि मामूली कर होता तो दिया भी जा सकता था,
किन्तु सरकार ने इतने कर लगा दिए की यदि सरकार को सच्चाई से न्यायपूर्वक सारी
आमदनी बता दी जाय तो अधिकाँश धन सरकार ही ले लेगी ।’
कोई स्वार्थ त्याग की बात कहता है तो लोग उसकी हँसी
उड़ाते है । यह अन्याय से उपार्जित धन परोपकार
में विशेष खर्च नही होता, क्योकि पाप के द्रव्य से पाप ही होता है । यदि उस द्रव्य को परमार्थ या परोपकार में दिल खोल कर
लगा दे तो उस पाप का कुछ प्रायश्चित हो, किन्तु उस काम में न लगा कर उस द्रव्य को
ऐश-आराम-शौकीनी में विवाह-शादी में ही खर्च करते है, जिससे उनका यह लोक भी बिगड़ता
है और परलोक भी ।....शेष अगले ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!