※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन शुक्ल, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण  करने में स्वतन्त्र है -१०-

 

गत ब्लॉग से आगे ...... ऊपर बतायी हुई बातों में और उनके अतिरिक्त भी एक और सद्गुण-सदाचार है और एक और दुर्गुण-दुराचार इन दोनों में से कौन उत्तम और ग्राह है- इस पर विवेकपूर्वक बुद्धि से भलीभाँती विचार करने पर यही निर्णय होता है की क्षमा, दया, शान्ति, समता, संतोष, सरलता, ज्ञान, वैरा, शूरता, वीरता, धीरता, निर्भयता, लज्जा, निरभिमानता, त्याग, पवित्रता, चित की प्रसन्नता, मन-बुद्धि-इन्द्रियों का संयम, उपरति, तितिक्षा, सुहृदयता, निष्कामभाव इत्यादि सद्गुण एवं यज्ञ, दान, तप तथा माता-पितादी गुरुजन और दुखी, अनाथ एवं बाढ़, अकाल आदि प्रकोपों से पीड़ित मनुष्यों तथा गौ आदि प्राणियों की सेवा, विनय-प्रेमपूर्वक व्यवहार, शौचाचार, स्वाध्याय, ईश्वर, देवता और महात्माओं की श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सेवा-पूजा इत्यादि सदाचार ही अपना उत्थान करने वाले है; अत: ये ही उत्तम एवं ग्राह है
 
इसके विपरीत काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरता, राग-द्वेष, वैर, अहंकार, ममता, दर्प, अभिमान, अज्ञान, नास्तिकता, मान-बड़ाई की इच्छा, चिंता, भय, शोक, वासना, तृष्णा आदि दुर्गुण एवं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, मादक वस्तुओं का सेवन, चौपड़-ताश, और खेल-तमाशे की बुरी आदत, अन्यायपूर्वक धन का उपार्जन, न करने योग्य कार्य को करना और करने योग्य कार्य को न करना, अधिक मात्रा में सोना, आलस्य, व्यर्थ चिन्तन, व्यर्थ कर्म, व्यर्थ बकवाद, कठोर भाषण, कटु व्यवहार, परनिन्दा, दूसरों का अपमान करना, दसरों के दोषों का दर्शन, श्रवण, कथन, इत्यादि दुराचार अपना अध:पतन करने वाले होते है-अत: ये सभी त्याज्य है अपनी विवेकयुक्त बुद्धि के अनुसार सद्गुण-सदाचार को दाहिनी पंक्ति में और दुर्गुण-दुराचार को बायीं पंक्ति में रखना चाहिये ......शेष अगले ब्लॉग में
         

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!