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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, दशमी, मंगलवार, वि० स० २०७०
गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -११-
गत ब्लॉग से आगे ...... इस प्रकार और भी जो भाव और
आचरण सामने आये, उनपर अपनी बुद्धि से विवेकपूर्वक भलीभांति विचार करके निर्णय कर
लेना चाहिये । निर्णय करने पर जो एक ग्राह् और
एक त्याज्य पंक्ति बन जाय, उसमे से त्याज्य बायीं पंक्ति में आई हुई बातों का सेवन
न करना और ग्राह् दाहिनी पंक्ति में आई हुई बातों का सेवन करने से अपने द्वारा
अपना उद्धार करना है । इसके विपरीत, ग्राह् दाहिनी
पंक्ति में आयी हुई बातों को सेवन न करना और त्याज्य बायीं पंक्ति में आई हुई
बातों का सेवन करना ही अपने द्वारा अपना पतन करना है । एवं उपर्युक्त विवेचन के अनुसार विवेक-वैराग्यपूर्वक
शम-दम आदि उत्तम भाव तथा सेवा, भक्ति, परोपकार आदि उत्तम आचरणरूप साधनों के द्वारा
जिसने इन्द्रियों सहित अपने मन को वश में कर लिया है, वाही मनुष्य अपने आप का
मित्र है । इसके विपरीत राग-द्वेष आदि
अवगुणऔर झूठ, कपट, चोरी, हिंसा आदि दुराचार के वशीभूत होने के कारण जो इन्द्रियों
सहित अपने मन को वश में नही कर, वही अपने आप का शत्रु है ।
क्योकि उपर्युक्त प्रकार से विवेकयुक्त बुद्धि के
द्वारा जिसको हमने इस रूप में जान लिया है की यह हमारे परम लाभ की बात है, उसे
धारण न करना और जिसे विवेकबुद्धि पूर्वक इस रूप में समझलिया की यह बुरी बात है,
अध:पतन करने वाली है, उसे जानबूझ कर करते रहना-यह अपनी समझ से, अपने सिद्धान्त से
गिरना है और यह महामुर्खता है । इससे बढ़कर और पतन क्या होगा ।
अतएव हम लोगों को उचित है की अपने विवेकयुक्त बुद्धि
के द्वारा भलीभाँती विचार कर जिनको अच्छा (ग्राह्) समझ लिया है, उसको कटीबद्ध होकर
काम में लावे और जिसको बुरा (हेय) समझ लिया है, उसका सर्वथा त्याग कर दे । यही कल्याण का मार्ग है ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!