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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, अष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०
गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -९-
गत ब्लॉग से आगे ...... एक और सात्विक भोजन है और
दूसरी और राजस तामस भोजन है । इन दोनों के विषय में विचार करने पर यही निर्णय मिलता है की डाल-भात, फुल्का
रोटी, तरकारी-साग, दूध, दही, घी, फल, मेवा इत्यादि जो सात्विक पदार्थ है, उनका
सेवन करना ही उत्त और कल्याण में सहायक है । इसके विपरीत मिर्च-खटाई आदि राजसी और लहसुन, प्याज,
गांजा, सल्फा, भांग, तम्बाकू, बीडी-सिगरेट और मॉस-मंदिरा, मछली, अंडा आदि
हिंसायुक्त घ्रणित और अभक्ष्य होने के करण तामसी है; अत: इनका सेवन पतनकारक और
महान हानिकारक है, अतएव त्याज्य है । अपने विवेकद्वारा किये हुए इस निर्णय के अनुसार सात्विक भोजन को दाहिने
पंक्ति में और राजस-तामस भोजन को बायीं पंक्ति में रखना चाहिये ।
एक और परमात्मा का चिन्तन-सेवन है और एक और दृशय
संसार का चिन्तन-सेवन है । इन दोनों में कौन कर्तव्य है- इस विषय में गहराई से अपने ह्रदय में विचार
करना चाहिये । भली-भाँती विचार करने पर यही निर्णय
मिलता है की काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममता, आसक्ति और स्वार्थ के वश होकर इस नाशवान
क्षणभंगुर जड-चेतन, स्थावर-जन्गात्मक संसार के चिन्तन, सेवन और संग्रह में तो
क्षणमात्र के लिए ही सुख-सा प्रतीत होता है; किन्तु वास्तव में इसमें सुख नही है,
बल्कि संसार के चिन्तन में तो हानी-ही-हानि है । इसके विपरीत चाहे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई –कोई भी
क्यूँ न हो, उसकी सच्चिदानंद परमात्मा के अल्लाह, खुदा, गॉड, ईश्वर, ॐ, हरी,
नारायण, राम,कृष्ण, शिव आदि में से जिस नाम-रूप में श्रद्धा-विस्वास और रूचि हो,
उसी नाम का श्रद्धा पुर्वक जप, स्मरण, कीर्तन करना और उसके स्वरुप का चिन्तन करना
ही आदि, मध्य और अन्त में सदा ही लाभदायक आनन्द प्रदान करनेवाला है, अत: यही उत्तम
कर्तव्य है । उपर्युक्त निर्णय के अनुसार हमे
उचित है की परमात्मचिन्तन को दाहिनी पंक्ति में और संसारचिन्तन को बायीं पंक्ति
में रखे ।......शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!