※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 8 मार्च 2014

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन शुक्ल, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण  करने में स्वतन्त्र है -८-

 

गत ब्लॉग से आगे ...... एक और दूसरों के हक का हरण करना है और एक और दूसरों के हक को हरण न करना है इन दोनों में से कौन उत्तम है, इसको अपनी आत्मा से पूछने पर यही उत्तर मिलेगा की काम, लोभ, स्वार्थ और अज्ञान के वश में होकर दुसरे के हक की जमीन, मकान, स्त्री, पुत्र, धन आदि किसी भी पदार्थ को चोरी से, जोरी से, ठगी से या अन्य किसी भी प्रकार से अपने अधिकार में न करना ही न्याययुक्त और उत्तम है; इसके विपरीत, किसी के भी हक की वस्तु को किसी प्रकार हड़प लेना अन्यायपूर्ण और महान हानिकारक है अत: ऐसा समझ लेने पर दूसरों के हक का हरण न करने को दाहिनी पंक्ति में और दुसरे के हक को हरण करने को बायीं पंक्ति में रख लेना चाहिये

एक और विषयभोगों का त्याग है और दूसरी और विषयभोगों का उपभोग इन दोनों में से कौन उत्तम और कल्याणकारक है- इस पर अपमे अन्तकरण में विचार करना चाहिये विवेकपूर्वक भलीभाँती विचार करने पर यही बात मन में आती है की काम, क्रोध, लोभ, स्वार्थ और अज्ञान के वशीभूत होकर ऐश-आराम, स्वाद-शौक के रूप में जो मन इन्द्रयों द्वारा विषयों का उपभोग है, उसमे यदपि आरम्भ में सुख-सा प्रतीत होता है , वह परिणाम में विष के समान और महान हानिकारक है-अत: वह राजस सुख त्याज्य हैं इसी प्रकार जो निंद्रा, आलस्य, प्रमाद आदि के रूप में सुखभोग किया जाता है, वह आरंभ में और परिणाम में मोहकारक होने के कारण अपने पतन का हेतु है और महान हानिकारक है; अत: यह तामस सुख भी तयाज्य है इन दोनों के विपरीत धर्म  के लिए कष्ट सहना रूप तप, सत्पुरुषों का सँग और सेवा, कल्याणकारी पुस्तकों का अनुशीलन, दुखियों की सेवा और वैराग्यपूर्वक विषयों का त्याग करते हुए अपना जीवन बिताना आदि औषध-सेवन की भांति आरम्भ में कष्टप्रद होते हुए भी परिणाम में अमृततुल्य सुखप्रद है अत: यह सात्विक सुख ही उत्तम और कल्याणकरक सिद्ध हुआ उपर्युक्त निर्णय के अनुसार हमे विषयों के त्यागरूप सात्विक सुख को दाहिनी और की पंक्ति में और विषयों के उपभोगरूप राजस-तामस सुख को बायीं पंक्ति में रखना चाहिये ......शेष अगले ब्लॉग में
      

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!