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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल, प्रतिपदा, रविवार,
वि० स० २०७०
गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -२-
गत ब्लॉग से आगे ...... जिस गीता का आदर भारतेतर
देशों में भी है, उसका हम भारतीय लोग जितना आदर करना चाहिये, उतना नही करते-यह बड़ी
ही लज्जा और दुःख की बात है ।
गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह भगवान् की वान्ग्मयी मूर्ती है, भगवान का
नि:श्वाश है और भगवान के ह्रदय का भाव है । यह उपनिषद आदि सम्पूर्ण शास्त्रों का सार है । गीता की भाषा बहुत ही सरल, सुन्दर और भावपूर्ण है । गीता के अधयन्न का महत्व गंगास्नान और गायत्रीजप से
भी बढ़कर कहाँ जाये तो अत्युक्ति नहीं है । इसका श्रवण, कथन, गायन और स्मरण-सभी परम मधुर और परम
कल्याणप्रद है ।
गीता में अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक है, उनमे बहुत
से ऐसे श्लोक है, जिनमे से एक श्लोक भी यदि मनुष्य अर्थ और भावसहित मनन करके काम
में लाये तो उसका उद्धार हो सकता है । यहाँ
गीता के एक श्लोक के विषय में कुछ विचार किया जाता है-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ (६|५)
‘अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और
अपने को अधोगति में न डाले; क्योकि यह मनुष्य मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप
ही अपना शत्रु है ।’
इस श्लोक में प्रधान चार बाते बतलाई गई है-
मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये ।
मनुष्य को अपने द्वारा अध:पतन नही करना चाहिये ।
मनुष्य आप ही अपना मित्र है ।
मनुष्य आप ही अपना शत्रु है ।......शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!