※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -४-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन शुक्ल, तृतीया, मंगलवार, वि० स० २०७०

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण  करने में स्वतन्त्र है -४-

 

गत ब्लॉग से आगे ...... शास्त्रों में कल्याण के लिए बहुत से उपाय बतलाये गए है और सज्जन पुरुष भी हमारे कल्याण की बहुत-सी बाते कहते है उन सब पर एवं उनके सिवा भी जो आज तक आपने पढ़ा, सुना, समझा है, उस पर तथा उसके अतिरिक्त भी, ईश्वर ने आपको जो बुद्धि, विवेक और ज्ञान दिया है, उसका आश्रय लेकर पक्षपात रहित हो आपको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये  इस प्रकार गम्भीर विचार करने पर आपकी बुद्धि में संशय और भ्रम से रहित जो कल्याणकर भाव और आचरण प्रतीत हो, उसको सिद्धान्त मानकर तत्परतापूर्वक कटीबद्ध हो उसका सेवन करना और उसके विपरीत भाव और आचरण का कभी सेवन न करना-यही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है इसी प्रकार जो भाव और आचरण हमे विचार करने पर लाभप्रद प्रतीत हो, उसका सेवन न करना अपना अध:पतन करना है

संसार में जितने भी हिन्दू, मुसलमान, इसाई, पारसी, यहूदी, सिखआदि मत और सिद्धान्त माने जाते है, उन सबसे आदरपूर्वक निरपेक्ष होकर पक्षपात रहित हो समभाव से विवेकपूर्वक गंभीरता से अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय करते हुए विचार करना चाहिये की परम कल्याणदायक भाव और आचरण कौन-से है एवं इनके लिए जो-जो बाते अपने मन में आये, उन पर सोच विचार करके निर्णय की हुई बातों की हमे दो श्रेणी बना लेनी चाहिये-(१) कल्याणकरक अच्छी बाते और (२) पतनकारक बुरी बातें ......शेष अगले ब्लॉग में
         

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!