※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 5 मार्च 2014

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतन्त्र है -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन शुक्ल, चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०

गीता के अनुसार मनुष्य अपना कल्याण  करने में स्वतन्त्र है -५-

 

गत ब्लॉग से आगे ......  जो कल्याणकरक बाते हो, उनको दाहिनी और रखे और जो पतनकारक बाते हो उनको, उनको बायीं और रखे इस प्रकार अलग-अलग दो पक्तियाँ बन जाएँगी, जिसमे दाहिनी और की पक्ति ग्रहण करने के लिए एवं बायीं और की पंक्ति त्याग करने के लिए है उधाहरण के लिए-

एक और सद्व्यवहार है और दूसरी और दुर्व्यवहार अब यह निर्णय करना है की इन दोनो में कौन उत्तम और कल्याणकरक है तथा कौन निकृष्ट और पतनकारक है

एक मनुष्य अपने साथ अपना स्वार्थ और अभिमान छोड़कर उत्तम श्रेणी का व्यवहार करता है तो इससे आपको कितनी प्रसन्नता और शान्ति मिलती है आपके हृदय पर यह असर पड़ता है की इसने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया है अत: इससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये की आप भी दूसरों के साथ ऐसा ही उत्तम व्यवहार करे इसके विपरीत, कोई व्यक्ति आपके प्रति अत्याचार करता है, दुर्व्यवहार करता है, आपका अपमान करता है तो उससे आपके चित में उसके व्यवहार का यह असर पड़ता है की इसने मेरे साथ अनुचित और बुरा बर्ताव किया अत: उससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिये की आप ऐसा दुर्व्यवहार किसी के साथ न करे

इससे निर्णय हो जाता है की सद्व्यवहार ही उत्तम और कल्याणकरक है तथा दुर्व्यवहार निकृष्ट और पतनकारक है अड़ सद्व्यवहार को दाहिनी पंक्ति में और दुर्व्यवहार को बायीं पंक्ति में रखे ......शेष अगले ब्लॉग में            

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!