※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक - अदभुत जन्म -३-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, प्रतिपदा, बुधवार, वि० स० २०७०

गीताप्रेस के संस्थापक -  अदभुत जन्म -३- 

गत ब्लॉग से आगे.... जो व्यक्ति मानवमात्र को जन्म-मृत्यु के महान दुःख से बचाने के लिए पृथ्वी पर आ रहा हो वह अपनी माता को कष्ट कैसे दे सकता था । वि० सं० १९४२ में अधिक ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी को इनकी माता लघुशंका के लिए घर के आंगन में गयीं और वहाँ से अपने वस्त्र में इस महामानव को लेकर आ गयी । ‘होनहार वीरवान के होत चिकने पात’ के अनुसार अवस्था के साथ ही इनके कार्य विलक्षण दिखायी देने लगे । भगवत चिन्तन में निमग्न सेठजी अपने पारिवारिक कार्यों को भी पूरे मनोयोग से करते थे । तत्कालीन प्रथा के अनुसार इनका विवाह भी लगभग १३ वर्ष की अवस्था में हो गया सांसारिक कार्य तो इनके पन्चभौतिक शरीर से हो रहा था लेकिन मन तो उस जगत नियन्ता की छवि को निहारता रहता था । इनके पिता जी आर्यसमाज से प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने सेठजी को सत्यार्थ-प्रकाश पढने की प्रेरणा दी । सेठजी को सत्यार्थ-प्रकाश की युक्तियाँ नहीं जची । वे सनातन धर्म को ही अपना धर्म मानते थे एवं बचपन में ही घर के पास स्थित शिवमन्दिर में बैठ कर योगवसिष्ठ इत्यादि का अध्यन्न किया करते थे । अपनी कुशाग्र बुद्धि को इन्होने सद्ग्रंथों के अधयन्न में लगाया ।... शेष अगले ब्लॉग में        

  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!