※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 14 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-कुछ रहस्यात्मक प्रसंग-१९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, पूर्णिमा, बुधवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-कुछ रहस्यात्मक प्रसंग-१९-

 

गत ब्लॉग से आगे….....एक सत्संगी भाई स्वर्गाश्रम में गंगापार कर रहे थे । नाव का इंजिन बीच में फेल हो गया । लंगर भी डाला गया लेकिन वह भी फेल हो गया । नाविक ने कहा अब तो बचने का कोई उपाय नहीं है । भगवान् को याद कीजिये । सत्संगी भाई भगवान् को याद करने लगे । उस समय जयदयालजी गोयन्दका का अपने कुछ सत्संगी भाइयों के साथ कमरे में बैठे थे । उनके मुख से अनायास निकलने लगा की बचाओ ! बचाओ !! नाव सकुशल किनारे आ गयी । सत्संगी भाई सकुशल वापिस आकर प्रसन्न मन से यह घटना सेठजी को बताने लगा की मुझे लगा की किसी ने रस्सा बाँधकर नाव किनारे खीच ली है । सेठजी मुकुराने लगे । सेठजी के एक भाई ने देखा की सेठजी के हाथ लाल हो रखे है । बस उसे समझते देर न लगी की नाव को बचाने वाला कौन है ।

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एक दिन गोविन्द भवन, कोलकाता में सेठजी से मिलने कोई आदमी एकदम सुबह आ गया । बद्रीदास जी ने दरवाजा खोलते ही सर पर हाथ मारा की सुबह सुबह कैसे आदमी का मुहँ देखा; क्योकि वह आदमी दुश्चरित्र, पापी समझा जाता था । जयदयाल जी गोयन्दका ने उनसे कहा की तुम मेरा साथ करते हो और तुम्हे अभी तक ज्ञान नहीं है की जो मेरे से मिलने आ गया, क्या अब भी वह पापी रह गया ?

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एक बार सेठजी प्रवचन कर रहे थे । उस समय एक सज्जन आये, भाई जी उनसे गले लगा कर मिले । नारायणजी सरावगी के मन में आई की सेठजी भी मेरे से ऐसे ही मिलें । प्रवचन समाप्त करके सेठजी आये और बोले क्यों छोरा, गले लग कर मिलने की मन में आ रही है, आ मिल ले ।

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एक बार सेठजी की थाली में चूरमे के लड्डू की तरह की साम्रगी परोसी गयी थी । एक सत्संगी भाई के मन में आई की क्या महात्मा है चूरमा (स्वादिष्ट पदार्थ )  खा रहे है । सेठजी तुरन्त बोले यह चूरमा नहीं है । इसमें न तो घी है न तो चीनी ही है । मेरे दात मे दर्द है इसलिए मैंने रोटी चूरकर लड्डू के रूप में रख ली है ।...... शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!