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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, अष्टमी, गुरुवार, वि० स० २०७१
गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२७-
गीताप्रेस के इतिहास में ही क्यों,
गोयन्दका की समस्त प्रवर्तियों एवं अनुष्ठानों तथा संकल्पों को रूपायित करने में
घनश्यामदास जी का नाम स्वर्णअक्षरों में लिखा मिलेगा । आत्मनिवेदन का सौन्दर्य एवं
आनन्द क्या है, कैसा होता है कोई घनश्याम जी से जाने । और क्या आश्चर्य की ऋषिकेश
स्वर्गाश्रम के गीताभवन में घनश्यामजी ने गंगातट पर गोयन्दका जी की गोद में ही
अपना शरीर छोड़ा । ए मरण ! तेरा कितना अनुपम पावन श्रृंगार उस दिन हुआ था । जिन
मृत्यु पर मनुष्यों की कौन कहे देवता भी तरसते होंगे, ईर्ष्या करते होंगे । उनकी
मृत्यु कई लोगों ने सामने पहाड़ी पर आतिशबाजी जैसा बिजली का प्रकाश एवं नगाड़ों के
बजने के स्वर का अनुभव किया ।
एक बार सेठजी कई लोगों के बीच
बैठकर चर्चा कर रहे थे की उनका शरीर शान्त होने के बाद कौन क्या-क्या काम करेगा ।
घनश्यामदास जी का नंबर आने पर उन्होंने कहा की जिसे रहना हो वह सोचे । मुझे तो
आपके बाद रहना ही नही है ।
घनश्याम जी प्रेस के कर्मचारियों
के सच्चे शुभचिन्तक थे । उनके अभाव में वे अपने को अनाथ मानने लगे । गोयन्दकाजी
अनायास किसी को खोजना या पुकारना हो तो ‘घणसाम’ को पुकार बैठते । बाद में होश आता की घणसाम तो
‘घनश्याम’ में सदा के लिए जा मिला है । घनश्याम जी के जाने के बाद सेठजी का जैसे
परम अन्तरंग अनन्य सखा-सचिव-सेवक चला गया । उस आभाव की पूर्ती कोई न कर सका ।….. शेष अगले ब्लॉग में
गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक,
प्रकाशक श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!