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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, नवमी, शुक्रवार, वि० स० २०७१
गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२८-
२-श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्धार
(भाई जी)
सेठजी की कर्मशक्ति की धारा
घनश्याम जी में जैसे उतरी थी, वैसे ही उनकी भावशक्ति की धारा श्रीभाईजी में उतरी ।
उनमे भक्ति की एक मधुर प्रखर धारा बह निकली । श्रीभाई जी ने हरिनाम का रस, लीला का
रस बरसाना शुरू किया और हजारों नही, लाखों-लाखों व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं
परोक्ष रूप से इस भावराज्य में प्रवेश कराया ।
आरम्भ में कहते है, श्रीभाईजी ने
श्रीगोयन्दका जी को ही सम्बोधित कर यह भजन बनाया था-
जयति देव, जयति देव, जय दयालु देवा
।
परम गुरु, परम पूज्य, परम देव देवा
।।
सब विधि तव चरन-सरन आई परयों दासा ।
दीं, हीन-मति-मलीन, तदपि सरन आसा ।।
पातक अपार किन्तु दया को भिखारी ।
दुखित जानि राखु सरन पाप-पुंजहारी ।।
अबलौके सकल दोष क्षमा करहु स्वामी ।
ऐसो करूं, जाते पुनि हौ, न
कुपथगामी ।।
पात्र हौं, कुपात्र हौं, भले
अनधिकारी ।
तदपि हौं तुम्हारों, अब लेहूँ मोहि
उबारी ।।
लोग कहत तुम्हरो सब, मनहु कहत सोई ।
करिय सत्य सोई नाथ !, भव-भ्रम सब
खोई ।।
मोरि और जनि निहारी, देखिय निज
तनही ।
हठ करि मोहि राखिय हरी ! संतत तल
पनही ।।
कहों कहा बार-बार, जानहु सब भेवा ।
जयति, जयति, जय दयालु, जय दयालु
देवा ।।
परम गुरु, परम पूज्य, परम देव देवा
।।….. शेष अगले ब्लॉग में
गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक,
प्रकाशक श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!