※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 21 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२६-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, सप्तमी, बुधवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२६-

 

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१-श्री घनश्यामदास जी जालान-

इस महदनुष्ठान में उन्हें कई साथी मिले; परन्तु तीन ऐसे मिले जो सर्वथा इस अनुष्ठान के अनुरूप ही थे-सबसे विरल साथी, सखा और सचिव थे घनश्यामदासजी ।
 
आत्मसमर्पण की प्रतिमूर्ति, ‘सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ का उदाहरण । समर्पण की जो सुषमा घनश्याम जी में देखने को मिली, वह आज के हिसाबी-किताबी दुनिया में कहाँ मिलती है ?
 
वे अपना जबाब आप ही थे-एक, अद्वितीय, अनन्य । गोयन्दका जी में उन्होंने अपना ‘गतिभर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणम् सुहृद’ सब कुछ पा लिया । सोते-जागते ‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियाया:’ सेठजी ने उन्हें ‘अपना’ लिया । गोयन्दकाजी की सारी कर्मशक्ति घनश्यामजी में स्वत: स्फूर्त हुई अपनी पूरी सजगता और तेजस्विता के साथ ।
 
उन्होंने अपने तन-मन-धन को कभी भी अपना नही माना, सब कुछ ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ । समर्पण की मनोहारी मूर्ती .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!