※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 26 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, त्रयोदशी, सोमवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३१-

 

एक बार सेठजी प्रवचन में जा रहे थे । स्वामीजी महाराज को पहले से पता नहीं था वे भिक्षा करने बैठे हुए थे । महाराज जी को पता लगा की सेठजी प्रवचन के लये जा रहे है तो महाराज जी आचमन करके यह कह कर उठ गए की भिक्षा के लिए सत्संग क्या छोड़ना । उस समय चौबीस घंटे में एक बार भिक्षा लिया करते थे ।

एक बार स्वामीजी गीताप्रेस, गोरखपुर आये हुए थे । प्रात: ३ बजे शौच-स्नान के लिए नदी की और जाने के लिए गेट पर आये तो गेट बन्द मिला, गेट खुलने का समय प्रात: ४ बजे था । दिन में उन्होंने सेठजी से पुछा की साधू को फाटक खोलने के लिए कहना चाहिये या नही । सेठजी ने कोई उत्तर नहीं दिया तथा फाटक प्रात;काल जल्दी खोलने का आदेश दे दिया । स्वामीजी ने कहा-आपने मुझे तो उत्तर नही दिया और फाटक खुलवा दिया । सेठजी बोले की पहले हम तो अपने कर्तव्य का पालन करण तब तो अपना कर्तव्य बताये ।

एक बार स्वामी जी ने एकान्तवास का विचार किया । सेठजी ने कहा-स्वामीजी ! आप एकान्त में जाकर अपनी मुक्ति कर लेंगे । अकेले भोजन करना बढ़िया है क्या ? स्वामीजी बोले-मैं बहुत सुनाता हूँ; किन्तु ये लोग मानते ही नही है । सेठजी ने कहा-मैं भी तो सुनाता हूँ । अपना काम सुनाना है । हमलोगों को अपना काम करना चाहिये । स्वामीजी ने एकान्तवास का विचार छोड़ दिया । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!