※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 28 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३३-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, अमावस्या, बुधवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३३-

 

सेठजी का पन्चभौतिक शरीर धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा था । उन दिन में भी सेठजी पूर्व की तरह ही कार्य करते थे । एक समय वे पत्रोत्तर लिखवा रहे थे । एक सत्संगी भाई ने कहा की अब आपको पत्रोत्तर नहीं लिखवाने चाहिये । सेठजी ने कहा की यदि मुझे काफी इमार करना हो तो ये सब कार्य मुझसे बंद करवा दो ।

एक कर्मनिष्ठ, परमभागवत जयदयाल जी गोयन्दका की नेत्र ज्योति तो कई वर्ष पूर्व ही मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद नही के बराबर रह गयी थी । पिताशय में भी पथरी हो गयी थी, जिससे पांच-छ: दिन के अंतराल ज्वर आने लगा था और पेट में भी दर्द रहता था । शरीर निरन्तर क्षीण होता जा रहा था । उन दिनों सेठ जी बाँकुड़ा में थे । सभी लोगों को लगा के अब सेठ जी का शरीर जायदा दिन नही रहेगा । अत: ३१ मार्च १९६५ को सेठजी को गीताभवन स्वर्गाश्रम ले आया गया ।

शरीर की स्थिति उत्तरोतर गिरने लगी । पर देहवासन के पांच दिन पहले तक वे पत्र सुनते और उनके उत्तर लिखवाते रहे । बोलने की शक्ति कम हो गयी थी, तथापि वे धीरे-धीरे बोलते और उपदेश की बात कहते थे । प्रतिदिन-यहांतक की देहवसान के दिनों तक उन्होंने संध्या की और सूर्यअर्घ्य दिया ।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!