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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल, सप्तमी, गुरुवार, वि० स० २०७१
गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-४१-
गत ब्लॉग से आगे…....शव यात्रा में बालक-वृद्ध,
मालिक-नौकर, गृहस्थ-सन्यासी, मूर्ख-पंडित, छोटे-बड़े सभी थे । लोग चढ़ा रहे थे
बार-बार फूलों को, लोग कर रहे थे बार-बार वन्दना और लोग बोल रहे थे सत्यध्वनी ।
अर्थी परमार्थ निकेतन के सामने से होती हुई तथा गंगातटीय रोड़ो को पार करती हुई
वट-वृक्ष के समीप पहुची । वट-वृक्ष की यही स्थली है जहाँ सेठजी ने लगभग ४० वर्ष
सत्संग-प्रवचन और भजन-कीर्तन में व्यतीत किया । वट-वृक्ष की परिक्रमा के उपरान्त
शव को चिता तक लाया गया ।
चिता ठीक वट-वृक्ष के सामने और ठीक
गंगा तट पर बनायीं गयी । लोग चन्दन की चिता बनाना चाहते थे पर सेठजी फालतू खर्च के
विरोधी थे और सादगी प्रिय थे । अत: उनके अनुयायिओं ने स्पष्ट मना कर दिया । चिता
के जलने पर प्राय दुर्गन्ध फैला करती है, पर यहाँ विपरीत ही हुआ । अनेको ने ऐसा
अनुभव किया की सारा नभ मण्डल सौरभ से सुवासित हो गया है । यह एक अन्य चमत्कारिक
अनुभूति थी । कई लोगों ने कहा की सेठजी के कपड़ों से भी प्राय: चन्दन की सुगन्ध आती
थी । यदि चन्दन की लकड़ी की चिता बनती तो यह रहस्य छिप जाता । एक विचित्रता और भी
घटित हुई । लोगों ने देखा की किस प्रकार चिता की लपटे उधर्वमुखी होकर गंगा माँ की
गोद में समा रही है और झुक झुक कर गंगा माँ को प्रणाम कर रही है । यह कर्म तब तक चलता रहा, जब तक चिता आधी जल
नहीं गयी । न चाहते हुए भी सबने देखा की वह जिसने गीता के प्रवाह का, धर्म के
उत्थान का, आस्तिकता की प्रतिष्ठा का, साधकों के उन्नयन का, समाज के जागरण का,
ब्राह्मणों की सेवा का, गौओं की रक्षा का, विधवाओं को पुचकारने का और दुखियों को
दुलारने का महान कार्य किया, उस महापुरुष का अन्तिम निशान, वह पार्थिव शरीर भी
चिता की लपटों में लिपट कर सदा के लिए सभी की आखों से ओझल हो गया ।….. शेष अगले ब्लॉग में
गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक,
प्रकाशक श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!