※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 2



भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 


Jaydayal Ji Goyandka जब अपने भावना ही करनी है तो ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये। ऊँची भावना क्या है?  सो अनन्य जाके असि मति न टर हनुमंत।  मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥  भगवान् गीता में कहा है—  बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।  वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥  (गीता ७। १९)  बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।  भगवान् ने दया करके मनुष्य शरीर दे दिया, यह अन्तका जन्म ही है। चौरासी लाख योनियोंमें में मनुष्य शरीर अंतिम है। साधन करके उससे काम बना ले तो यह अन्तिम जन्म है। यह धारणा करनी चाहिये कि भगवान् ही अनेक रूप धारण करके लीला कर रहे हैं। क्रिया मात्र भगवान् की लीला है । वस्तु मात्र भगवान् का स्वरूप है।  भगवान् बछड़े बन गये थे, वह लीला थी। यदि हम यह समझ लें कि सारे रूप भगवान् ने धारण कर रखे हैं तो सब में भगवत्-भाव भी हो गया और श्रवण भी हो गया| यह बहुत ऊँची श्रेणीकी बात है।  भगवान् का मिलना सुगम-से सुगम और कठिन से कठिन है। जिसमें श्रद्धा, विश्वास है उसके लिये बहुत सुगम है, जिसमें श्रद्धा, विश्वास की कमी है उसके लिये कठिन से कठिन है।  अपने भगवान् को कठिन मान लिया है, इसलिये विलम्ब हो रहा है। आपने साधन थोड़ा किया और मान बहुत लिया। आप हिसाब लगायें, आप कितने समय भजन करते हैं और कितने समय दूसरा काम करते हैं।   एक करोड़ रुपये नित्य कमानेवाला भी कहता है कि कम है। इसी तरह यदि चौबीसों घण्टे भजन होने लगे तो वह भी कहेगा अभी भजन थोड़ा होता है।  माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माहि ।  मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे यह तो सुमरिन नाहिं॥  हम जो साधन करते हैं, वह बेगार की तरह करते हैं। प्रेम हो जाय तो भजन छूट ही नहीं सकता। जैसे प्रह्लाद, मीरा आदि को कितनी कठिनाई हुई, पर उनसे भजन नहीं छूटा।  भजन करते हुए सब रोमों से नाम-जप हो। यह बात बहुत प्रेम, श्रद्धा से करे तब मालूम पड़ता है। भजन श्रद्धा-विश्वास से करे। भजन पापों का नाश मानना भूल है, क्योंकि अन्धकारका नाश तो सूर्य भगवान् के आभास मात्र से हो जाता है। सूर्य से फिर क्या कहे कि हे सूर्य भगवान् ! अन्धकार का नाश कर दें। उसी तरह भगवान् स्मरणमात्रसे ही पापों का नाश हो जाता है।   पारस से संत श्रेष्ठ हैं। संतों से नाम श्रेष्ठ है, जिससे भगवान् की प्रतिष्ठा है। भगवान् नामसे बढ़कर श्रेष्ठ हैं। भगवान् सबसे श्रेष्ठ हैं। जो भगवान् को सबसे श्रेष्ठ समझ लेता है, वह उनको सब प्रकारसे भजता है। वह कभी परमात्मा भूल नहीं सकता।  यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।  स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥  (गीता १५ । १९)     हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।      - श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी  पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर


जब अपने भावना ही करनी है तो ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये। ऊँची भावना क्या है?
सो अनन्य जाके असि मति न टर हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
भगवान् गीता में कहा है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
(गीता ७। १९)
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।
भगवान् ने दया करके मनुष्य शरीर दे दिया, यह अन्तका जन्म ही है। चौरासी लाख योनियोंमें में मनुष्य शरीर अंतिम है। साधन करके उससे काम बना ले तो यह अन्तिम जन्म है। यह धारणा करनी चाहिये कि भगवान् ही अनेक रूप धारण करके लीला कर रहे हैं। क्रिया मात्र भगवान् की लीला है । वस्तु मात्र भगवान् का स्वरूप है।
भगवान् बछड़े बन गये थे, वह लीला थी। यदि हम यह समझ लें कि सारे रूप भगवान् ने धारण कर रखे हैं तो सब में भगवत्-भाव भी हो गया और श्रवण भी हो गया| यह बहुत ऊँची श्रेणीकी बात है।
भगवान् का मिलना सुगम-से सुगम और कठिन से कठिन है। जिसमें श्रद्धा, विश्वास है उसके लिये बहुत सुगम है, जिसमें श्रद्धा, विश्वास की कमी है उसके लिये कठिन से कठिन है।
अपने भगवान् को कठिन मान लिया है, इसलिये विलम्ब हो रहा है। आपने साधन थोड़ा किया और मान बहुत लिया। आप हिसाब लगायें, आप कितने समय भजन करते हैं और कितने समय दूसरा काम करते हैं।
 एक करोड़ रुपये नित्य कमानेवाला भी कहता है कि कम है। इसी तरह यदि चौबीसों घण्टे भजन होने लगे तो वह भी कहेगा अभी भजन थोड़ा होता है।
माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे यह तो सुमरिन नाहिं॥
हम जो साधन करते हैं, वह बेगार की तरह करते हैं। प्रेम हो जाय तो भजन छूट ही नहीं सकता। जैसे प्रह्लाद, मीरा आदि को कितनी कठिनाई हुई, पर उनसे भजन नहीं छूटा।
भजन करते हुए सब रोमों से नाम-जप हो। यह बात बहुत प्रेम, श्रद्धा से करे तब मालूम पड़ता है। भजन श्रद्धा-विश्वास से करे। भजन पापों का नाश मानना भूल है, क्योंकि अन्धकारका नाश तो सूर्य भगवान् के आभास मात्र से हो जाता है। सूर्य से फिर क्या कहे कि हे सूर्य भगवान् ! अन्धकार का नाश कर दें। उसी तरह भगवान् स्मरणमात्रसे ही पापों का नाश हो जाता है।
 पारस से संत श्रेष्ठ हैं। संतों से नाम श्रेष्ठ है, जिससे भगवान् की प्रतिष्ठा है। भगवान् नामसे बढ़कर श्रेष्ठ हैं। भगवान् सबसे श्रेष्ठ हैं। जो भगवान् को सबसे श्रेष्ठ समझ लेता है, वह उनको सब प्रकारसे भजता है। वह कभी परमात्मा भूल नहीं सकता।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५ । १९)

हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।


- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 
पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर