|| श्रीहरिः ||
आज की
शुभतिथि-पंचांग
बैशाख
शुक्ल चतुर्दशी, गुरुवार, वि०स० २०८०
मेरा अनुभव
गत ब्लॉग से आगे....... रामायण
में भी यही बात है-
सोई सेवक प्रियतम
मम सोई | मम अनुसासन मानै जोई ||
जो मेरे अनुकूल है,
मेरी आज्ञा मानता है वह सबसे बढ़कर प्रिय है | अनुकूल होना सबसे बढ़कर है | भगवान्
के शरीर की सेवा करे उसे भगवान् ने प्रियतम नहीं कहा, परन्तु भगवान् के मन, वाणी
और इशारे के अनुसार जो चलता है वह प्रियतम है | भगवान् का जो प्रिय काम है उस
करनेवाले को सबसे बढ़कर प्रिय काम करनेवाला कहा है | सबसे कठिन-से-कठिन काम करने का
मौका आता तो हनुमानजी भगवान् राम के लिए तैयार थे | अतः हनुमान से बढ़कर प्यारा काम
कौन कर सकता है | इसलिए यहाँ समझना चाहिए कि गीता, रामायण संसार में सबसे बढ़कर हैं
| गीता के लिए कहा है-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै:
शास्त्रविस्तरै: |
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ||
रामायण के रचयिता दूसरे हैं और गीता तो स्वयं
भगवान् के मुखारविंद से निकली है | इसलिए गीता सबसे बढ़कर है |
आज तुलसीदासजी नहीं है, किंतु उनकी
रामायण, विनय-पत्रिका, जीवनी जबतक मौजूद रहेंगे तबतक संसार का उद्धार होता रहेगा |
उसकी इति कोई नहीं कर सकता | यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण कार्य है | उसी प्रकार हमलोग
भी तुलसीदासजी के मुकाबले में ही नहीं, अपितु उनसे भी बढ़कर दुनिया को लाभ पहुँचा
सकते हैं | ऐसे लोगों को ईश्वर से बढ़कर कह दें तो अत्युक्ति नहीं | स्वयं राम अपनी
भक्ति एवं भावों का उतना प्रचार नहीं कर सकते जितना उनके भक्त कर सकते हैं | यदि
संसार में भक्त नहीं होते तो भगवान् की उतनी कीमत नहीं होती; इसलिए भगवान् के
भक्तों की इतनी महिमा गाई जाती है |
आज आपको बड़ी तात्त्विक, सिद्धान्तकी,
दार्शनिक मर्मकी बातें बतायी, भगवान् और महात्माओं के रहस्य की बात बतायी | जो
भगवान् के अनुकूल हो जाता है उसका तो उद्धार हो ही जाता है, पर उसकी कृपा से
दुनिया के लाखों-करोड़ो का उद्धार हो सकता है | ईश्वर के अनुकूल बनने से बढ़कर कोई
काम नहीं | ईश्वर को प्राप्त हुए पुरुष के अनुकूल बनने से ही अपनी आत्मा का कल्याण
हो जाता है और परमात्मा के अनुकूल हो जाये वह तो संसार का उद्धार कर सकता है | हम
यदि किसी महात्मा के अनुकूल ही हो गये तो अपने उद्धार की चिंता नहीं रहती, फिर
परमात्मा के अनुकूल बन जाएँ तो चिंता की बात ही नहीं है | संसार में ऐसे पुरुष
बहुत कम हैं जो परमात्मा या महात्मा के अनुकूल हैं | जो भगवान् के अनुकूल बन गया
उसने भगवान् को खरीद लिया | भगवान् की प्रतिज्ञा है-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
जो अपने को भगवान् के समर्पण कर चुका है, भगवान्
उसके समर्पण हो गये | भगवान् का मूल्य यही है | भगवान् प्रेम करनेवाले हैं | जो
अपनी चीज भगवान् को अर्पण कर देता है, उसके लिए भगवान् की सब चीज अपनी है | यह
प्रेम की बात है फिर भगवान् की और हमारी चीज में कोई भेद नहीं रह जाता | भगवान् को
अपना सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिए | स्वार्थ की दृष्टी से देखो तो भगवान् के आगे
हम तुच्छ हैं, क्षुद्र हैं | भगवान् हमारा आवाहन कर रहे हैं, बुला रहे हैं इसलिए
एक क्षण भी नहीं रुकना चाहिए | तत्काल शामिल हो जाना चाहिए | भक्ति में स्वरुप से
दो रहते हुए एकता है और ज्ञान में दो नहीं रहते, एक तत्त्व ही बन जाता है | ऐसे
मित्र को हम भी खोजते हैं कि हमारा सर्वस्व उसका और उसका सर्वस्व हमारा हो |
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!