※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 4 मई 2023

मेरा अनुभव

 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

बैशाख शुक्ल चतुर्दशी, गुरुवार, वि०स० २०८०


मेरा अनुभव  

गत ब्लॉग से आगे....... रामायण में भी यही बात है-

           सोई सेवक प्रियतम मम सोई | मम अनुसासन मानै जोई ||

   जो मेरे अनुकूल है, मेरी आज्ञा मानता है वह सबसे बढ़कर प्रिय है | अनुकूल होना सबसे बढ़कर है | भगवान् के शरीर की सेवा करे उसे भगवान् ने प्रियतम नहीं कहा, परन्तु भगवान् के मन, वाणी और इशारे के अनुसार जो चलता है वह प्रियतम है | भगवान् का जो प्रिय काम है उस करनेवाले को सबसे बढ़कर प्रिय काम करनेवाला कहा है | सबसे कठिन-से-कठिन काम करने का मौका आता तो हनुमानजी भगवान् राम के लिए तैयार थे | अतः हनुमान से बढ़कर प्यारा काम कौन कर सकता है | इसलिए यहाँ समझना चाहिए कि गीता, रामायण संसार में सबसे बढ़कर हैं | गीता के लिए कहा है-

               गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै: |

               या  स्वयं  पद्मनाभस्य  मुखपद्माद्विनिःसृता  ||

        रामायण के रचयिता दूसरे हैं और गीता तो स्वयं भगवान् के मुखारविंद से निकली है | इसलिए गीता सबसे बढ़कर है |

        आज तुलसीदासजी नहीं है, किंतु उनकी रामायण, विनय-पत्रिका, जीवनी जबतक मौजूद रहेंगे तबतक संसार का उद्धार होता रहेगा | उसकी इति कोई नहीं कर सकता | यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण कार्य है | उसी प्रकार हमलोग भी तुलसीदासजी के मुकाबले में ही नहीं, अपितु उनसे भी बढ़कर दुनिया को लाभ पहुँचा सकते हैं | ऐसे लोगों को ईश्वर से बढ़कर कह दें तो अत्युक्ति नहीं | स्वयं राम अपनी भक्ति एवं भावों का उतना प्रचार नहीं कर सकते जितना उनके भक्त कर सकते हैं | यदि संसार में भक्त नहीं होते तो भगवान् की उतनी कीमत नहीं होती; इसलिए भगवान् के भक्तों की इतनी महिमा गाई जाती है |

          आज आपको बड़ी तात्त्विक, सिद्धान्तकी, दार्शनिक मर्मकी बातें बतायी, भगवान् और महात्माओं के रहस्य की बात बतायी | जो भगवान् के अनुकूल हो जाता है उसका तो उद्धार हो ही जाता है, पर उसकी कृपा से दुनिया के लाखों-करोड़ो का उद्धार हो सकता है | ईश्वर के अनुकूल बनने से बढ़कर कोई काम नहीं | ईश्वर को प्राप्त हुए पुरुष के अनुकूल बनने से ही अपनी आत्मा का कल्याण हो जाता है और परमात्मा के अनुकूल हो जाये वह तो संसार का उद्धार कर सकता है | हम यदि किसी महात्मा के अनुकूल ही हो गये तो अपने उद्धार की चिंता नहीं रहती, फिर परमात्मा के अनुकूल बन जाएँ तो चिंता की बात ही नहीं है | संसार में ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जो परमात्मा या महात्मा के अनुकूल हैं | जो भगवान् के अनुकूल बन गया उसने भगवान् को खरीद लिया | भगवान् की प्रतिज्ञा है-

                  ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |

          जो अपने को भगवान् के समर्पण कर चुका है, भगवान् उसके समर्पण हो गये | भगवान् का मूल्य यही है | भगवान् प्रेम करनेवाले हैं | जो अपनी चीज भगवान् को अर्पण कर देता है, उसके लिए भगवान् की सब चीज अपनी है | यह प्रेम की बात है फिर भगवान् की और हमारी चीज में कोई भेद नहीं रह जाता | भगवान् को अपना सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिए | स्वार्थ की दृष्टी से देखो तो भगवान् के आगे हम तुच्छ हैं, क्षुद्र हैं | भगवान् हमारा आवाहन कर रहे हैं, बुला रहे हैं इसलिए एक क्षण भी नहीं रुकना चाहिए | तत्काल शामिल हो जाना चाहिए | भक्ति में स्वरुप से दो रहते हुए एकता है और ज्ञान में दो नहीं रहते, एक तत्त्व ही बन जाता है | ऐसे मित्र को हम भी खोजते हैं कि हमारा सर्वस्व उसका और उसका सर्वस्व हमारा हो |


श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!


बुधवार, 3 मई 2023

मेरा अनुभव

 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

बैशाख शुक्ल त्रयोदशी, मंगलवार, वि०स० २०८०

मेरा अनुभव



गत ब्लॉग से आगे....... मैं ज्ञान का वर्णन करता हूँ, तो सीढ़ी-दर-सीढ़ी साधन किया है | भक्ति के विषय में ज्यादा साधन नहीं- भगवान् की कृपा से है | एक तो प्रयत्न-साध्य है और दूसरा ईश्वर की कृपा से हो वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है | भक्ति के विषय में भगवान् की प्रेरणा हुई और ज्ञान का विषय अपने अभ्यास से हुआ | ईश्वर की भक्ति के विषय में, सगुण के तत्त्व के विषय में कोई अपनी विशेष जानकारी की बात कहे तो उसकी बात सुनकर कुछ हँसी-सी आती है | वह असली भक्ति के इर्द-गिर्द फिरता दीखता है | उनके वचन बिना जाने, अभिमान के वचन मालूम पड़ते हैं | अतएव मैं चुप रहता हूँ |

            कोई कहे भगवान् का भजन-ध्यान ठीक बनता है तो मैं समझता हूँ मूर्ख है, कुछ नहीं करता | उसपर आक्षेप नहीं करता -अपमान नहीं करता | कोई पूछे कि तुमको भगवान् के दर्शन हुए या नहीं तो उत्तर है कि इसका उत्तर देने में मैं लाचार हूँ | ऐसा प्रश्न किसी से नहीं करना चाहिए | प्रश्न करना मूर्खता है | इतना जानने मात्र से उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | जो हमारे पास वर्षों से रहते हैं, उनके भी विशेष लाभ नहीं दीखता तो एकदम उसका उत्तर दे देने से लाभ कैसे होगा !

          समता अमृत है | जैसे बासे की पूड़ी में भेद-भाव नहीं है, उस पूड़ी को चाहे अमीर ले, चाहे साधु ले, एक-सी पूड़ी है, वह अमृत है | साधुओं के लिए तो बिना माँगे मिले वह वस्तु अमृत है | किन्तु गृहस्थों के लिए कोई चीज खरीदने पर ही अमृत होती है |

         मेरी सबसे यह प्रार्थना है कि शरीर सबका शान्त होता है | मेरा शरीर शान्त होनेपर सत्संग का सिलसिला चलता रहे | जिस उद्देश्य से मकान ( गीताभवन ) बनाया गया है, उसका उद्देश्य यही है कि यहाँ पर भजन, सत्संग होता रहे तभी उद्देश्य की पूर्ति होगी | यह स्थान, वटवृक्ष सब भगवान् की कृपा से कुदरती बने हुए हैं | ये जबतक कायम रहें, तबतक यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहे तो बहुत ही उत्तम बात है | मेरी तो यही प्रार्थना है कि भविष्य में यथाशक्ति कोशिश करें कि यह चले- यहाँ भजन, ध्यान और सत्संग तीनों चलें | संसार में भजन, ध्यान और सत्संग से बढ़कर कोई चीज मूल्यवान नहीं है |

              हर-एक को यह ध्यान रखना चाहिए कि भजन, ध्यान और सत्संग बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं, जो इसमें शामिल होता है उसे तो लाभ होता ही है | अतएव हर कोई भाई तन-मन से इसमें सहायता देता रहे तो बहुत फायदा है | धन की तो आवश्यकता नहीं है, क्योंकि धन तो जबरदस्ती आकर प्राप्त हो उसे स्वीकारना पड़ता है | इस काम में तन-मन लगाने की ही प्रेरणा की जाती है | जो कोई शरीर से यहाँ नहीं आ सकता वह मन तो दे सकता है | तन-मन से आत्मा के कल्याण में मदद दें | जन और धन वे ही कल्याण करनेवाले हैं जो भगवान् की प्राप्ति में मदद करने वालें हों |

           भगवान् के भावों का प्रचार करनेवाले पुरुष को भगवान् ने सबसे उच्चकोटि का पुरुष माना है | मैंने गीता में पढ़ा-

               न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |

               भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||  (१८ | ६९)

यह श्लोक मुझे बहुत अच्छा लगा | भगवान् ने यहाँ तक कह दिया कि जो गीतारूपी संवाद का संसार में प्रचार करता है, उसके समान दुनियाँ में मेरा प्यारा काम करनेवाला न है, न हुआ और न होगा | हनुमान के प्रति भगवान् राम ने यह बात कही है कि हे हनुमान मैं तुम्हारा ऋणी हूँ | हनुमान ने भगवान् की आज्ञा का पालन किया तो कहना पड़ा कि मैं ऋणी हूँ, उस ऋण से मैं मुक्त होना भी नहीं चाहता | वही बात खयाल में रखकर हनुमान जी वहाँ जाते हैं जहाँ रामायण की कथा हो | गीता, रामायण वास्तव में एक हैं, इसलिए यह बात कही जाती है कि गीता का प्रचार मूल, शब्द, अर्थ, भाव, पुस्तक-वितरण, विक्रय, आचरण से, व्याख्यान देकर तथा सुनकर- हर-एक प्रकार से संसार में प्रचार करना, विस्तार करना, भगवान् के उत्तम ध्येय का प्रचार करना सबसे उत्तम है | अन्य तो सेवा है, किन्तु यह परम सेवा है | परम सेवा परमात्मा की सेवा है | निष्काम प्रेमभाव से तन-मन-धन  हर-एक से यह कार्य करना चाहिए | जो मेरी बात जितनी मानता है, वह मुझे उतना ही प्रिय लगता है | स्त्री-पुत्र भी अनुकूल नहीं हों तो प्रिय नहीं है | जो अनुकूल हैं, वे सबसे बढ़कर हैं |  .....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव  पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 2 मई 2023

मेरा अनुभव

 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

बैशाख शुक्ल द्वादशी, मंगलवार, वि०स० २०८०

 

मेरा अनुभव

         सभी सिद्धांतों से यही बात है कि मैं देह नहीं, आत्मा हूँ और भगवान् का चिदंश हूँ | ऐसा मानें तो भक्ति के मार्ग में विपरीत बात नहीं जाती | वास्तव में स्थूल शरीर से मृत्यु के समय सम्बन्ध-विच्छेद होता है और महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होता है | ज्ञान के सिद्धांत से आत्मा और प्रकृति का सम्बन्ध-विच्छेद होता है और परमात्मा में वह आत्मा मिल जाता है | भक्ति में जीव-ईश्वर का भेद नित्य है -भगवान् नित्य हैं | भक्तिमार्ग में माया अनादि और अनन्त है | सभी सिद्धान्त वाले स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का अन्त मानते हैं, कारण का नाश सब कोई नहीं मानते | तीन देहों में से दो देह के साथ सम्बन्ध-विच्छेद सभी मानते हैं | जीव परमात्मा का अंश है, भक्तिमार्ग में स्वामी-सेवक का भाव है | अंशांशी की मान्यता का भी आरोप है | केवल ज्ञान में तो अजातवाद है -सृष्टि और माया है ही नहीं और केवल भक्ति में  जीव, ईश्वर और प्रकृति सदा से हैं और सदा रहेंगे |

       मैं बाल्यावस्था में भगवान् के चित्र को सामने रखकर मुखारविंद पर दृष्टी रखता और भावना करता कि भगवान् में क्रिया हो रही है | भाव रखता कि इसमें से भगवान् प्रकट होंगे | इससे भगवान् का ध्यान रहना, प्रसन्नता रहनी स्वाभाविक थी | तस्वीर कागज और काँच के सिवाय कोई वस्तु नहीं, परन्तु श्रद्धा और भाव से भगवद्विषयक ध्यान रहता था | मूर्ति चाहे पाषाण कि हो, चाहे कागज़ की -वास्तव में श्रद्धा-भाव से मूर्ति चेतन हो जाती है और साक्षात्-स्वरुप उसमें से प्रकट हो जाता है | छोटी अवस्था में साधु-महात्माओं का बहुत संग किया | मै तर्कशील था, इसलिए साधुओं के दर्जे के अनुरूप उनमें श्रद्धा करता था | परमात्मा को प्राप्त पुरुष बहुत कम मिले | अच्छे-अच्छे साधक तो बहुत मिले | गीता-शास्त्र आदि में जो लक्षण बताये हैं, उनके मुताबिक जितने लक्षण जिनमें होते, उनमें उतनी श्रद्धा होती थी | इस कसौटी से बहुत-से अच्छे-अच्छे साधु भी छिपकर रह जाते थे |

         ईश्वर की दया सबपर है, उसको जो माने उसे विशेष मालूम पड़ती है | अपनी दृष्टी से सोचता हूँ तो यह मालूम पड़ता है कि मेरे ऊपर जितनी दया है, उतनी शायद ही किसी के ऊपर होगी | अपनी प्रतीति की बात कहता हूँ कि परमात्मा कि अपार दया है | मुझे ऐसी प्रतीति नहीं होती तो मैं भक्ति का विरोधी होता |  वेदान्त के ग्रन्थ, योगवासिष्ट, पंचदशी, विचार-सागर देखे थे, पर विचार-सागर, पंचदशी में मेरी श्रद्धा नहीं थी | मैं इनका प्रचार भी नहीं करता | शंकराचार्यजी के अद्वैत सिद्धान्त पर मेरी श्रद्धा थी | भक्तिमार्ग के ग्रन्थ- श्रीमद्भागवत, रामानुजाचार्य जी की टीका, माधवाचार्य जी की टीका छपवाने में, प्रचार करने में मेरा विरोध नहीं है | ज्ञान का मार्ग और भक्ति का मार्ग मुझे ऐसे प्रतीत होते हैं -मानों गाड़ी के दो पहिये हैं | ज्यादा लोगों के लिए सुगम भक्ति ही मालूम देती है | शास्त्रों ने ज्ञान के मार्ग को कठिन बताया है, पर मैं उतना कठिन नहीं मानता, हाँ, समूह के लिए कठिन मानता हूँ | मैं तो कहता हूँ कि मेरे ऊपर भगवान् कि विशेष कृपा नहीं होती तो मैं या तो वेदान्ती या नास्तिक बन जाता | भगवान् ने बचा लिया | मैं आधुनिक वेदान्त को नहीं मानता | मैं मर्यादा का बहुत पक्षपाती हूँ | मैं मर्यादा का भक्त हूँ | मुझे मर्यादा प्रिय है | अच्छे पुरुषों में मेरी श्रद्धा हुई, किन्तु जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हुई | यह बात मानता हूँ कि अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए, पर मैं नहीं कर रहा हूँ यह मेरे में कमी है | माता-पिता की सेवा करनी बड़ी महत्त्व की चीज है | परन्तु मेरे व्यवहार में माता-पिता की सेवा में कमी मिलेगी -व्यवहार में कमी है | शास्त्रोचित व्यवहार को आदर देता हूँ | किन्तु मेरे से वैसा व्यवहार नहीं होता तो उतनी मेरे में कमी है | ‘आवश्यक नहीं है यह बात मैं नहीं मानता |

          मान, बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा के लिए जो दम्भ करता है वह राजसी है | नास्तिकता को लेकर जो दम्भ करता है वह तामसी है | इसी की ज्यादा निन्दा की गयी है | मैं ज्ञान के मार्ग की निन्दा नहीं करता हूँ | पर ज्ञान के मार्ग से गिरनेवाले निन्दा के पात्र हैं |

         प्रश्न-  भक्ति के मार्ग में आने में भगवान् की दया का क्या कारण है ?

       उत्तर-  यह कारण हो सकता है कि भक्ति के मार्ग की समय के अनुसार आवश्यकता है | कोई अन्धा गड्ढे की ओर जा रहा है तो कोई दयालु आदमी उसकी लकड़ी पकड़कर रास्ते पर लगा देता है, वैसे भगवान् ने आवश्यक समझकर किया है |

         निष्कामभाव, सत्यभाषण और मर्यादा -ये तीनों चीजें मेरी प्रकृति के अनुकूल ज्यादा पड़ी हैं | मर्यादा के अनुसार आचरण और सच्चाई प्रिय है | ये बातें होनी चाहिए, मनुष्य चाहे ज्ञान अथवा भक्ति किसी मार्ग से चले | भगवान् की सत्ता, निष्कामभाव, उत्तम आचरण, वैराग्य -ये एक-एक चीज बहुत उच्चकोटि की है |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव  पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, 10 मई 2020

अपने सिद्धांत में दृढ़ रहें

अपने सिद्धांत में दृढ़ रहें

 

अपना सिद्धान्त जो बनावे उसमें दृढ़ रहे। सिद्धान्त उद्देश्य बनता है। सिद्धान्त मूल है। उद्देश्य ढाल है। क्रिया में जप, ध्यान, स्वाध्याय एवं सत्संग हैं तथा भाव में श्रद्धा एवं निष्काम प्रेम। भगवान् को हर समय याद रखना यह सबसे मूल्यवान् बात है। काम, क्रोध, लोभ, व्यभिचार दुर्गुण हैं तथा नम्रता, प्रेम, सत्य भाषण आदि गुण हैं जप, ध्यान, सत्संग आदि करनेसे गुणों की वृद्धि होती है एवं दुर्गुणों का नाश होता है।

प्रश्न-ध्यान नहीं होता है, केवल जप से यह हो सकता है क्या?

उत्तर-केवल जप से हो सकता है। जप निष्काम होना चाहिये। श्रद्धा, प्रेम यदि साथ में हो तो और भी शीघ्र कार्य हो सकता है। ध्यान साथ में रहे तो बहुत शीघ्र हो सकता है।

मान-बड़ाई आदिका त्याग अपने यहाँ छोड़कर दूसरी जगह बहुत कम देखने में आता है। अपना सिद्धांत बना लेनेपर वैसे ही करना चाहिये। जैसे डॉक्टर की औषधि मैं नहीं लेता। यदि डॉक्टर कहे इसको लेने से शीघ्र लाभ होगा तो भी नहीं लेता। ऐलोपैथी औषधि लेने की अपेक्षा नहीं लेना उत्तम है।

मनुष्य में जितनी क्षमता है, वह उतना ही भगवान् के समीप है। बीमारी में यदि ज्ञानी स्वस्थ हो रहा है तो उसे हर्ष नहीं है, यदि रोग बढ़ता है तो उसको शोक नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओं में समान रहता है।

दूसरों के दोष न देखने चाहिये, न कहने चाहिये, न सुनने चाहिये। ऐसा करने से उसके पाप का हिसाब उसको ही भोगना पड़ेगा। इसमें तीन दोष आते हैं। उन दोषों के संस्कार मन में जम जाते हैं। जब वैसा वातावरण आता है तो वे संस्कार जाग्रत् होकर आपको उन बातों की याद आती है, जिससे उसका पतन होता है। उसके मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ अशुद्ध हो जाते हैं।

गीता के एक श्लोक के अनुसार भी जीवन बना ले, उसी समय भगवान् मिल जायँ। यह जो संसार आपको दीखता है, उसकी जगह भगवान् दीखने लग जाए । उसी समय भगवत्-प्राप्ति है

 

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

(गीता ७ । १९)

बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में  तत्त्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है

भगवान् से बढ़कर और कोई चीज नहीं है, इतनी बात मान लेनेपर बेड़ा पार है। इसकी पहचान क्या है?

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥

(गीता १५ । १९)

हे भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे से निरंतर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।

 

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥

(गीता १८। १७)

जिस पुरुष के अंतःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्म में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।

स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की यदि मनमें इच्छा है तो वह अव्यभिचारिणी भक्ति नहीं है। भगवान् केवल भगवान् के ही मिलने की तीव्र इच्छा होनेसे मिलते हैं।

 

संसार के पदार्थ इच्छा करनेसे नहीं मिलते। केवल भगवान् ही ऐसे हैं जो इच्छा करनेसे मिलते हैं। तीव्र इच्छा हो जाय तो अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं है।

भगवान् के सिवाय यदि दूसरों को भजे तो भगवान् को सबसे उत्तम कहाँ माना।

यदि आप मुझे सबसे बढ़कर महात्मा मानें तो फिर आपको दूसरे महात्मा की आवश्यकता नहीं है। यदि दूसरे महात्मा की आवश्यकता है तो आपने मुझे सबसे ऊँचा महात्मा कहाँ माना। अत: जो पूरा लाभ होनेवाला है, वह नहीं होगा, क्योंकि आपकी भावना पूरी नहीं है।

 

-परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका -सेठजी 

पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें, कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर 

सोमवार, 4 मई 2020

भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें 2 गीता का प्रचार


गीता का प्रचार

गीता का प्रचार प्रथम तो गीता का प्रचार अपनी आत्मा में करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर सीखेंगे, तभी तो कमाण्डर बनकर सिखलावेंगे। आप जितनी मदद चाहें उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्य ने कितना प्रचार किया, भगवान की शक्ति थी। भगवान ने यह कहीं नहीं कहा कि शंकराचार्य से बढ़कर कोई नहीं होगा, किन्तु गीता का प्रचार करने वाले के लिये कहा है।  हरेक प्रकारसे गीता का प्रचार करना चाहिए। भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं। गीता बालक, युवा, वृद्ध, सभी के लिये है।  मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥ किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ (गीता ९। ३२-३३)  हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर प्रकृति को ही प्राप्त होते हैं। फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुख रहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।  जातिसे नीच या आचरणसे नीच, कोई भी हो, भगवान की कृपासे सबका उद्धार हो सकता है।   अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥ क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥ (गीता ९। ३०-३१)  यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।  सार यही है कि भगवान काम के लिये कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिये। स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्मपालन में मरना भी पड़े तो कल्याण ही है। बन्दरों ने भगवान का काम किया-उनमें क्या बुद्धि थी। गीताका प्रचार भगवान का ही काम है, कोई भी निमित्त बन जाय। जितने निमित्त बने, उससे कितना अधिक प्रचार हो रहा है। मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा को ठोकर मारकर काम करो, फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैं। सारा काम भगवान् स्वयं ही करते हैं। तैयार होकर करो, डरो मत। विश्वास करो-लुटिया डुबाने वाला कोई नहीं है। - परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन श्रीजयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी  पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर Gita Tavvta Vivechani Shri Jaydayal Goyankda sethji, Gitapress Gorakhpur

प्रथम तो गीता का प्रचार अपनी आत्मा में करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर सीखेंगे, तभी तो कमाण्डर बनकर सिखलावेंगे। आप जितनी मदद चाहें उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्य ने कितना प्रचार किया, भगवान की शक्ति थी। भगवान ने यह कहीं नहीं कहा कि शंकराचार्य से बढ़कर कोई नहीं होगा, किन्तु गीता का प्रचार करने वाले के लिये कहा है।
हरेक प्रकारसे गीता का प्रचार करना चाहिए। भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं। गीता बालक, युवा, वृद्ध, सभी के लिये है।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(गीता ९। ३२-३३)
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं। फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुख रहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।
जातिसे नीच या आचरणसे नीच, कोई भी हो, भगवान की कृपासे सबका उद्धार हो सकता है।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
सार यही है कि भगवान काम के लिये कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिये। स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्मपालन में मरना भी पड़े तो कल्याण ही है। बन्दरों ने भगवान का काम किया-उनमें क्या बुद्धि थी। गीताका प्रचार भगवान का ही काम है, कोई भी निमित्त बन जाय। जितने निमित्त बने, उससे कितना अधिक प्रचार हो रहा है। मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा को ठोकर मारकर काम करो, फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैं। सारा काम भगवान् स्वयं ही करते हैं। तैयार होकर करो, डरो मत। विश्वास करो-लुटिया डुबाने वाला कोई नहीं है।
    
      - परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन श्रीजयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 
      पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर




गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें


भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें

भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें Jaydayal Ji Goyandka- Sethji आज भगवान् के प्रेम, प्रभाव और रहस्य की बातें कहने का विचार किया गया है। एक सज्जन ने कहा कि धर्म की लुटिया डूब रही है। इस विषय में निवेदन है कि आपको यह विश्वास रखना चाहिये कि जिसका नाम सनातन है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। हाँ, किसी समय दब जाता है, किसी समय जोर पकड़ लेता है। लोग इस समय इसके नाश के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं, पर हम लोगों को उस अनन्त शक्तिमान की शक्ति सहारा लेकर इसके प्रचार के लिये निमित्त मात्र बन जाना चाहिये। यश ले लो, निमित्त मात्र बन जाओ। जो कोई अपनी सामर्थ्य मानता है, उसे भगवान् मुँह-तोड़ उत्तर देते हैं। शक्ति भगवान् की है और अपनी माने, भगवान् इसको नहीं सहते। केनोपनिषद्की कथा है-एक बार देवता ओं को अपने बल का अभिमान हो गया। यक्ष रूपमें  भगवान् प्रकट हुए। अग्नि, वायु, इन्द्र क्रमश: उनके पास गये। पूरे ब्रह्मांड को जलाने, उड़ाने की बात करनेवाले एक तिनके को भी जलाने, उड़ाने में असमर्थ हो गये। उमा के रूप में साक्षात् परमात्मा ने प्रकट होकर इन्द्र को बताया कि सारी शक्ति, तेज-प्रभाव सब कुछ भगवान् का ही है।  यही बात हम लोगों को समझनी चाहिये। जो कोई भी अभिमान से बात करता है, उसे भगवान् नहीं सह सकते। हाँ, स्वामी के बल पर हम लोगों को किसी से डरने की क्या आवश्यकता है। पुलिस के दस रुपये महीने के सिपाही के मन में एक बड़े करोड़पति सेठ को, जिसके दरवाजे पर बन्दूकों के पहरे लगते हैं, हथकड़ी डालकर ले जाने में क्या भय होता है? उसके पीछे सरकार का बल है। इसी प्रकार जो कोई भी अच्छे काम में निमित्त बनना चाहता है, उसे भगवान् बना देते हैं। पुलिस का सिपाही होकर भी जो कहे कि मैं सेठ को कैसे पकड़ सकता हूँ-वह पुलिस की नौकरी के लायक नहीं है। भगवान् के दास होकर अपनी कमजोरी का विचार क्यों करें। भगवान् का बल है। जो धर्म से डरता है, उसके सारे कार्य अन्त में सिद्ध होते हैं।  हरिश्चन्द्र देखिये-कितने संकट आये। राज्य चला गया, पुत्र मर गया, स्त्री शव लेकर जलाने आती है, हरिश्चन्द्र स्वामी का कर माँगते हैं। स्त्री कहती है-महाराज यह आपका पुत्र है, इसके लिये कफन ही नहीं है, कर कहाँ से दूँ। राजा कहते हैं तू अपना आधा वस्त्र कर के रूपमें दे दे, उसे बेचकर कर जमा करा दूंगा। रानी कहती है, काट लें। हरिश्चन्द्र तलवार लेकर ज्यों-ही काटना चाहते हैं, बस भगवान् प्रकट हो जाते हैं, भगवान् और नहीं सह सकते। हरिश्चन्द्र के धर्म पालन के परिणाम स्वरूप सारे नगर का उद्धार हो गया। धर्म पालन में यदि कष्ट नहीं होता तो सभी धर्मपरायण हो जाते। इस कष्ट सहन का परिणाम देखो। इस प्रकार के परोपकारी जीवों की चरण धूलि के लिये भगवान् उनके पीछे-पीछे फिरते हैं। ब्रह्मा कहते हैं-हमारे मस्तक पर चरण धरकर हमें पवित्र करके आप लोग आगे जाइये। कितनी बड़ी बात कहते हैं।  शक्ति भगवान् की, भगवान् करवाते हैं, सब कुछ भगवान् का ही है। पर भगवान् शक्ति किसे देते हैं, जो लेना चाहता है। हम लोग मूर्खता वश अभिमान कर बैठते हैं कि मेरी शक्ति है। बस 'मैं (अहंकार)' आते ही भगवान् का थप्पड़ लगता है, चेत हो जाता है। यह भगवान् की कृपा है। गुरु जैसे थप्पड़ लगाकर चेत करा देते हैं। भगवान् अपने भक्त का अभिमान नहीं सह सकते।  माँ बच्चे के रोने की परवाह न करके फोड़ा चिरवा ही देती है। अतः लक्ष्मण की तरह बोलो 'तव प्रताप बल नाथ।' यह मत भूलो। भगवान् के बल का आश्रय रखो। उसके बल पर सब हो सकता है। चूरू में मोचियों के पास एक राज कर्मचारी कर लेने के लिये गया। उनके अभी कर देने में असमर्थता जताने पर राजकर्मचारी उन्हें गालियाँ देने लगा। उसके हाथ में राजकीय छड़ी थी। मोचियों ने कहा-हम महाराज साहब की छड़ी का सम्मान करते हुए आपकी गालियाँ सहन कर रहे हैं। उसने छड़ी फेंक दी। मोचियों ने उसकी खूब पिटाई की। राजा के पास शिकायत जाने पर मोचियों ने कहा-अन्नदाता ! इसने आपकी छड़ी फेंक दी। हमें यह कैसे सहन होती। इसी प्रकार हम अपना प्रभाव मानें, तब जूते पड़ेगे। जैसे उस कर्मचारी को मोचियों के जूते पड़े और हमारे यमराज के पड़ेगे।  भगवान् शक्ति को समझने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है। आप को भय करने की आवश्यकता नहीं, कितना ही बड़ा काम हो-भगवान् की कृपा से सब कुछ हो सकता है। एक मामूली व्यक्ति सारे संसार में भगवान् के भावों का प्रचार कर सकता है।  भगवान् कहते हैं—  न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।  भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।  (गीता १८। ६९)  उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भार में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।      - श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी    पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर

आज भगवान् के प्रेम, प्रभाव और रहस्य की बातें कहने का विचार किया गया है। एक सज्जन ने कहा कि धर्म की लुटिया डूब रही है। इस विषय में निवेदन है कि आपको यह विश्वास रखना चाहिये कि जिसका नाम सनातन है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। हाँ, किसी समय दब जाता है, किसी समय जोर पकड़ लेता है। लोग इस समय इसके नाश के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं, पर हम लोगों को उस अनन्त शक्तिमान की शक्ति सहारा लेकर इसके प्रचार के लिये निमित्त मात्र बन जाना चाहिये। यश ले लो, निमित्त मात्र बन जाओ। जो कोई अपनी सामर्थ्य मानता है, उसे भगवान् मुँह-तोड़ उत्तर देते हैं। शक्ति भगवान् की है और अपनी माने, भगवान् इसको नहीं सहते। केनोपनिषद्की कथा है-एक बार देवता ओं को अपने बल का अभिमान हो गया। यक्ष रूपमें  भगवान् प्रकट हुए। अग्नि, वायु, इन्द्र क्रमश: उनके पास गये। पूरे ब्रह्मांड को जलाने, उड़ाने की बात करनेवाले एक तिनके को भी जलाने, उड़ाने में असमर्थ हो गये। उमा के रूप में साक्षात् परमात्मा ने प्रकट होकर इन्द्र को बताया कि सारी शक्ति, तेज-प्रभाव सब कुछ भगवान् का ही है।
यही बात हम लोगों को समझनी चाहिये। जो कोई भी अभिमान से बात करता है, उसे भगवान् नहीं सह सकते। हाँ, स्वामी के बल पर हम लोगों को किसी से डरने की क्या आवश्यकता है। पुलिस के दस रुपये महीने के सिपाही के मन में एक बड़े करोड़पति सेठ को, जिसके दरवाजे पर बन्दूकों के पहरे लगते हैं, हथकड़ी डालकर ले जाने में क्या भय होता है? उसके पीछे सरकार का बल है। इसी प्रकार जो कोई भी अच्छे काम में निमित्त बनना चाहता है, उसे भगवान् बना देते हैं। पुलिस का सिपाही होकर भी जो कहे कि मैं सेठ को कैसे पकड़ सकता हूँ-वह पुलिस की नौकरी के लायक नहीं है। भगवान् के दास होकर अपनी कमजोरी का विचार क्यों करें। भगवान् का बल है। जो धर्म से डरता है, उसके सारे कार्य अन्त में सिद्ध होते हैं।
हरिश्चन्द्र देखिये-कितने संकट आये। राज्य चला गया, पुत्र मर गया, स्त्री शव लेकर जलाने आती है, हरिश्चन्द्र स्वामी का कर माँगते हैं। स्त्री कहती है-महाराज यह आपका पुत्र है, इसके लिये कफन ही नहीं है, कर कहाँ से दूँ। राजा कहते हैं तू अपना आधा वस्त्र कर के रूपमें दे दे, उसे बेचकर कर जमा करा दूंगा। रानी कहती है, काट लें। हरिश्चन्द्र तलवार लेकर ज्यों-ही काटना चाहते हैं, बस भगवान् प्रकट हो जाते हैं, भगवान् और नहीं सह सकते। हरिश्चन्द्र के धर्म पालन के परिणाम स्वरूप सारे नगर का उद्धार हो गया। धर्म पालन में यदि कष्ट नहीं होता तो सभी धर्मपरायण हो जाते। इस कष्ट सहन का परिणाम देखो। इस प्रकार के परोपकारी जीवों की चरण धूलि के लिये भगवान् उनके पीछे-पीछे फिरते हैं। ब्रह्मा कहते हैं-हमारे मस्तक पर चरण धरकर हमें पवित्र करके आप लोग आगे जाइये। कितनी बड़ी बात कहते हैं।
शक्ति भगवान् की, भगवान् करवाते हैं, सब कुछ भगवान् का ही है। पर भगवान् शक्ति किसे देते हैं, जो लेना चाहता है। हम लोग मूर्खता वश अभिमान कर बैठते हैं कि मेरी शक्ति है। बस 'मैं (अहंकार)' आते ही भगवान् का थप्पड़ लगता है, चेत हो जाता है। यह भगवान् की कृपा है। गुरु जैसे थप्पड़ लगाकर चेत करा देते हैं। भगवान् अपने भक्त का अभिमान नहीं सह सकते।
माँ बच्चे के रोने की परवाह न करके फोड़ा चिरवा ही देती है। अतः लक्ष्मण की तरह बोलो 'तव प्रताप बल नाथ।' यह मत भूलो। भगवान् के बल का आश्रय रखो। उसके बल पर सब हो सकता है। चूरू में मोचियों के पास एक राज कर्मचारी कर लेने के लिये गया। उनके अभी कर देने में असमर्थता जताने पर राजकर्मचारी उन्हें गालियाँ देने लगा। उसके हाथ में राजकीय छड़ी थी। मोचियों ने कहा-हम महाराज साहब की छड़ी का सम्मान करते हुए आपकी गालियाँ सहन कर रहे हैं। उसने छड़ी फेंक दी। मोचियों ने उसकी खूब पिटाई की। राजा के पास शिकायत जाने पर मोचियों ने कहा-अन्नदाता ! इसने आपकी छड़ी फेंक दी। हमें यह कैसे सहन होती। इसी प्रकार हम अपना प्रभाव मानें, तब जूते पड़ेगे। जैसे उस कर्मचारी को मोचियों के जूते पड़े और हमारे यमराज के पड़ेगे।
भगवान् शक्ति को समझने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है। आप को भय करने की आवश्यकता नहीं, कितना ही बड़ा काम हो-भगवान् की कृपा से सब कुछ हो सकता है। एक मामूली व्यक्ति सारे संसार में भगवान् के भावों का प्रचार कर सकता है।
भगवान् कहते हैं—
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
(गीता १८। ६९)
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भार में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।


- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 

पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर