※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें


भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें

भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें Jaydayal Ji Goyandka- Sethji आज भगवान् के प्रेम, प्रभाव और रहस्य की बातें कहने का विचार किया गया है। एक सज्जन ने कहा कि धर्म की लुटिया डूब रही है। इस विषय में निवेदन है कि आपको यह विश्वास रखना चाहिये कि जिसका नाम सनातन है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। हाँ, किसी समय दब जाता है, किसी समय जोर पकड़ लेता है। लोग इस समय इसके नाश के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं, पर हम लोगों को उस अनन्त शक्तिमान की शक्ति सहारा लेकर इसके प्रचार के लिये निमित्त मात्र बन जाना चाहिये। यश ले लो, निमित्त मात्र बन जाओ। जो कोई अपनी सामर्थ्य मानता है, उसे भगवान् मुँह-तोड़ उत्तर देते हैं। शक्ति भगवान् की है और अपनी माने, भगवान् इसको नहीं सहते। केनोपनिषद्की कथा है-एक बार देवता ओं को अपने बल का अभिमान हो गया। यक्ष रूपमें  भगवान् प्रकट हुए। अग्नि, वायु, इन्द्र क्रमश: उनके पास गये। पूरे ब्रह्मांड को जलाने, उड़ाने की बात करनेवाले एक तिनके को भी जलाने, उड़ाने में असमर्थ हो गये। उमा के रूप में साक्षात् परमात्मा ने प्रकट होकर इन्द्र को बताया कि सारी शक्ति, तेज-प्रभाव सब कुछ भगवान् का ही है।  यही बात हम लोगों को समझनी चाहिये। जो कोई भी अभिमान से बात करता है, उसे भगवान् नहीं सह सकते। हाँ, स्वामी के बल पर हम लोगों को किसी से डरने की क्या आवश्यकता है। पुलिस के दस रुपये महीने के सिपाही के मन में एक बड़े करोड़पति सेठ को, जिसके दरवाजे पर बन्दूकों के पहरे लगते हैं, हथकड़ी डालकर ले जाने में क्या भय होता है? उसके पीछे सरकार का बल है। इसी प्रकार जो कोई भी अच्छे काम में निमित्त बनना चाहता है, उसे भगवान् बना देते हैं। पुलिस का सिपाही होकर भी जो कहे कि मैं सेठ को कैसे पकड़ सकता हूँ-वह पुलिस की नौकरी के लायक नहीं है। भगवान् के दास होकर अपनी कमजोरी का विचार क्यों करें। भगवान् का बल है। जो धर्म से डरता है, उसके सारे कार्य अन्त में सिद्ध होते हैं।  हरिश्चन्द्र देखिये-कितने संकट आये। राज्य चला गया, पुत्र मर गया, स्त्री शव लेकर जलाने आती है, हरिश्चन्द्र स्वामी का कर माँगते हैं। स्त्री कहती है-महाराज यह आपका पुत्र है, इसके लिये कफन ही नहीं है, कर कहाँ से दूँ। राजा कहते हैं तू अपना आधा वस्त्र कर के रूपमें दे दे, उसे बेचकर कर जमा करा दूंगा। रानी कहती है, काट लें। हरिश्चन्द्र तलवार लेकर ज्यों-ही काटना चाहते हैं, बस भगवान् प्रकट हो जाते हैं, भगवान् और नहीं सह सकते। हरिश्चन्द्र के धर्म पालन के परिणाम स्वरूप सारे नगर का उद्धार हो गया। धर्म पालन में यदि कष्ट नहीं होता तो सभी धर्मपरायण हो जाते। इस कष्ट सहन का परिणाम देखो। इस प्रकार के परोपकारी जीवों की चरण धूलि के लिये भगवान् उनके पीछे-पीछे फिरते हैं। ब्रह्मा कहते हैं-हमारे मस्तक पर चरण धरकर हमें पवित्र करके आप लोग आगे जाइये। कितनी बड़ी बात कहते हैं।  शक्ति भगवान् की, भगवान् करवाते हैं, सब कुछ भगवान् का ही है। पर भगवान् शक्ति किसे देते हैं, जो लेना चाहता है। हम लोग मूर्खता वश अभिमान कर बैठते हैं कि मेरी शक्ति है। बस 'मैं (अहंकार)' आते ही भगवान् का थप्पड़ लगता है, चेत हो जाता है। यह भगवान् की कृपा है। गुरु जैसे थप्पड़ लगाकर चेत करा देते हैं। भगवान् अपने भक्त का अभिमान नहीं सह सकते।  माँ बच्चे के रोने की परवाह न करके फोड़ा चिरवा ही देती है। अतः लक्ष्मण की तरह बोलो 'तव प्रताप बल नाथ।' यह मत भूलो। भगवान् के बल का आश्रय रखो। उसके बल पर सब हो सकता है। चूरू में मोचियों के पास एक राज कर्मचारी कर लेने के लिये गया। उनके अभी कर देने में असमर्थता जताने पर राजकर्मचारी उन्हें गालियाँ देने लगा। उसके हाथ में राजकीय छड़ी थी। मोचियों ने कहा-हम महाराज साहब की छड़ी का सम्मान करते हुए आपकी गालियाँ सहन कर रहे हैं। उसने छड़ी फेंक दी। मोचियों ने उसकी खूब पिटाई की। राजा के पास शिकायत जाने पर मोचियों ने कहा-अन्नदाता ! इसने आपकी छड़ी फेंक दी। हमें यह कैसे सहन होती। इसी प्रकार हम अपना प्रभाव मानें, तब जूते पड़ेगे। जैसे उस कर्मचारी को मोचियों के जूते पड़े और हमारे यमराज के पड़ेगे।  भगवान् शक्ति को समझने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है। आप को भय करने की आवश्यकता नहीं, कितना ही बड़ा काम हो-भगवान् की कृपा से सब कुछ हो सकता है। एक मामूली व्यक्ति सारे संसार में भगवान् के भावों का प्रचार कर सकता है।  भगवान् कहते हैं—  न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।  भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।  (गीता १८। ६९)  उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भार में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।      - श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी    पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर

आज भगवान् के प्रेम, प्रभाव और रहस्य की बातें कहने का विचार किया गया है। एक सज्जन ने कहा कि धर्म की लुटिया डूब रही है। इस विषय में निवेदन है कि आपको यह विश्वास रखना चाहिये कि जिसका नाम सनातन है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। हाँ, किसी समय दब जाता है, किसी समय जोर पकड़ लेता है। लोग इस समय इसके नाश के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं, पर हम लोगों को उस अनन्त शक्तिमान की शक्ति सहारा लेकर इसके प्रचार के लिये निमित्त मात्र बन जाना चाहिये। यश ले लो, निमित्त मात्र बन जाओ। जो कोई अपनी सामर्थ्य मानता है, उसे भगवान् मुँह-तोड़ उत्तर देते हैं। शक्ति भगवान् की है और अपनी माने, भगवान् इसको नहीं सहते। केनोपनिषद्की कथा है-एक बार देवता ओं को अपने बल का अभिमान हो गया। यक्ष रूपमें  भगवान् प्रकट हुए। अग्नि, वायु, इन्द्र क्रमश: उनके पास गये। पूरे ब्रह्मांड को जलाने, उड़ाने की बात करनेवाले एक तिनके को भी जलाने, उड़ाने में असमर्थ हो गये। उमा के रूप में साक्षात् परमात्मा ने प्रकट होकर इन्द्र को बताया कि सारी शक्ति, तेज-प्रभाव सब कुछ भगवान् का ही है।
यही बात हम लोगों को समझनी चाहिये। जो कोई भी अभिमान से बात करता है, उसे भगवान् नहीं सह सकते। हाँ, स्वामी के बल पर हम लोगों को किसी से डरने की क्या आवश्यकता है। पुलिस के दस रुपये महीने के सिपाही के मन में एक बड़े करोड़पति सेठ को, जिसके दरवाजे पर बन्दूकों के पहरे लगते हैं, हथकड़ी डालकर ले जाने में क्या भय होता है? उसके पीछे सरकार का बल है। इसी प्रकार जो कोई भी अच्छे काम में निमित्त बनना चाहता है, उसे भगवान् बना देते हैं। पुलिस का सिपाही होकर भी जो कहे कि मैं सेठ को कैसे पकड़ सकता हूँ-वह पुलिस की नौकरी के लायक नहीं है। भगवान् के दास होकर अपनी कमजोरी का विचार क्यों करें। भगवान् का बल है। जो धर्म से डरता है, उसके सारे कार्य अन्त में सिद्ध होते हैं।
हरिश्चन्द्र देखिये-कितने संकट आये। राज्य चला गया, पुत्र मर गया, स्त्री शव लेकर जलाने आती है, हरिश्चन्द्र स्वामी का कर माँगते हैं। स्त्री कहती है-महाराज यह आपका पुत्र है, इसके लिये कफन ही नहीं है, कर कहाँ से दूँ। राजा कहते हैं तू अपना आधा वस्त्र कर के रूपमें दे दे, उसे बेचकर कर जमा करा दूंगा। रानी कहती है, काट लें। हरिश्चन्द्र तलवार लेकर ज्यों-ही काटना चाहते हैं, बस भगवान् प्रकट हो जाते हैं, भगवान् और नहीं सह सकते। हरिश्चन्द्र के धर्म पालन के परिणाम स्वरूप सारे नगर का उद्धार हो गया। धर्म पालन में यदि कष्ट नहीं होता तो सभी धर्मपरायण हो जाते। इस कष्ट सहन का परिणाम देखो। इस प्रकार के परोपकारी जीवों की चरण धूलि के लिये भगवान् उनके पीछे-पीछे फिरते हैं। ब्रह्मा कहते हैं-हमारे मस्तक पर चरण धरकर हमें पवित्र करके आप लोग आगे जाइये। कितनी बड़ी बात कहते हैं।
शक्ति भगवान् की, भगवान् करवाते हैं, सब कुछ भगवान् का ही है। पर भगवान् शक्ति किसे देते हैं, जो लेना चाहता है। हम लोग मूर्खता वश अभिमान कर बैठते हैं कि मेरी शक्ति है। बस 'मैं (अहंकार)' आते ही भगवान् का थप्पड़ लगता है, चेत हो जाता है। यह भगवान् की कृपा है। गुरु जैसे थप्पड़ लगाकर चेत करा देते हैं। भगवान् अपने भक्त का अभिमान नहीं सह सकते।
माँ बच्चे के रोने की परवाह न करके फोड़ा चिरवा ही देती है। अतः लक्ष्मण की तरह बोलो 'तव प्रताप बल नाथ।' यह मत भूलो। भगवान् के बल का आश्रय रखो। उसके बल पर सब हो सकता है। चूरू में मोचियों के पास एक राज कर्मचारी कर लेने के लिये गया। उनके अभी कर देने में असमर्थता जताने पर राजकर्मचारी उन्हें गालियाँ देने लगा। उसके हाथ में राजकीय छड़ी थी। मोचियों ने कहा-हम महाराज साहब की छड़ी का सम्मान करते हुए आपकी गालियाँ सहन कर रहे हैं। उसने छड़ी फेंक दी। मोचियों ने उसकी खूब पिटाई की। राजा के पास शिकायत जाने पर मोचियों ने कहा-अन्नदाता ! इसने आपकी छड़ी फेंक दी। हमें यह कैसे सहन होती। इसी प्रकार हम अपना प्रभाव मानें, तब जूते पड़ेगे। जैसे उस कर्मचारी को मोचियों के जूते पड़े और हमारे यमराज के पड़ेगे।
भगवान् शक्ति को समझने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है। आप को भय करने की आवश्यकता नहीं, कितना ही बड़ा काम हो-भगवान् की कृपा से सब कुछ हो सकता है। एक मामूली व्यक्ति सारे संसार में भगवान् के भावों का प्रचार कर सकता है।
भगवान् कहते हैं—
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
(गीता १८। ६९)
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भार में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।


- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 

पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं


भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं


भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं  Shri Jaydayal Ji goyandka कलयुग में बहुत-से भक्त हुए हैं। नरसी, सूरदास तुलसीदास जी, गौरांग महाप्रभु आदि जीवनी से प्रतीत होता है कि उनको भगवान् की प्राप्ति हुई थी।  ईश्वर प्रेम से मिलते हैं, इसमें कोई देश, काल बाधक नहीं है। भगवान् सभी जगह हैं, वे सभी जगह मिल सकते हैं। यदि ऐसा होता कि भगवान् हरिद्वार में होते तो हरिद्वार में ही मिलते, लाहौर, अमृतसर में नहीं, परन्तु वे सब जगह हैं। उनके लिये कोई काल बाधक नहीं है। सतयुग में भगवान् का भजन, ध्यान करनेवाले अधिक थे, तब कानून कड़ा था। अब जब भजन करने वाले कम हुए तो कानून भी हलका हो गया।  सबसे बढ़कर भगवान् का भजन, ध्यान, नाम का जप और सत्-पुरुषों का संग है। पानी का जल, वाटर, नीर कुछ भी कहो एक ही बात है, इसी प्रकार हरि, राम, अल्लाह, गॉड एक ही बात है। भाषा अलग है, चीज वही है। हम को जो नाम अधिक रुचिकर हो वही हमारे लिये हितकर है। सभी भगवान् के नाम हैं।  जो निराकार के उपासक हों उनके लिये ॐ नाम बताया गया है। जो राम के उपासक हैं उनके लिए राम, कृष्ण के उपासक हो उनके लिये कृष्ण नाम है। वस्तु से दो चीज नहीं है, किन्तु एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा कभी विष्णु रूप से, कभी राम रूप से, कभी कृष्ण रूप से प्रकट होते हैं, वस्तु एक ही है। विष्णुसहस्रनाम में भगवान् विष्णु के एक हजार नाम लिखे हैं। चाहे जिस नाम से उन्हें पुकारो। जिसको जिस नाम से प्राप्ति होती है, वह उसी नाम को श्रेष्ठ बताते हैं। नाम सब भगवान् के ही हैं।  मिश्री किसी प्रकार भी खाओ, मुँह मीठा ही होगा। यह बात अवश्य है कि माला पर जप करनेसे से संख्या की गिनती रखने से नाम-जप अधिक हो सकता है, किन्तु हर काम करते समय नाम-जप करते ही रहें।  गोपियाँ हर-एक पदार्थ में भगवान् का दर्शन किया करती थीं। काम करते समय भी और काम नहीं करते समय भी। हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। भगवान् के प्रेमी निर्बल नहीं होते। वे सब कुछ कर सकते हैं। भगवान् उनके अधीन हो जाते है। दुर्वासा ऋषि भगवान् के पास गये। अपना अपराध क्षमा करनेके लिये प्रार्थना की। भगवान् ने कहा-यह मेरे हाथ की बात नहीं है। मैं तो भक्त के अधीन हूँ। आप अम्बरीष के पास ही जायँ ।  भगवान् विश्वास के योग्य हैं। उनमें विश्वास करनेसे काम हो जाता है। हजारों मनुष्यों में कोई एक पुरुष ही भगवान् की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है। उन भक्तों में भी किसी एक भक्त के ही भगवान् अधीन होते हैं। भगवान् की प्राप्ति बहुत कठिन नहीं है, किन्तु दूसरों को भगवान् की प्राप्ति करा देना यह कठिन बात है।  एक पुरुष भगवान् को स्वयं प्राप्त कर लेता है और एक दूसरों को भी प्राप्त करा सकता है। ऐसे पुरुष मिलने बहुत कठिन हैं। गौरांग महाप्रभु में यह माना जा सकता है कि वे दूसरोंको भी प्राप्ति करा सकते थे।  प्रश्न-आप आशीर्वाद दे दीजिये।  उत्तर-आशीर्वाद वे ही दे सकते हैं, जिनको भगवान् ने अधिकार दे रखा है। मैं साधारण मनुष्य हूँ आशीर्वाद और वरदान वे ही पुरुष दे सकते हैं, जिनके पास अधिकार होता है। मुझे भी भगवान् अधिकार दे देते तो मैं भी आशीर्वाद दे देता। मैं यदि आशीर्वाद दूँ तो बिना अधिकार रजिस्ट्री करने वाले की जैसी फजीहत होती है वैसी ही मेरी भी होगी।  प्रश्न-माला कौन-सी फेरनी चाहिये? उत्तर-जो शंकर की उपासना करता है उसके लिये रुद्राक्ष की और कृष्ण, राम, विष्णु की उपासना करने वाले के लिये तुलसी या चन्दन की उत्तम मानी गई है।  एकांत में बैठकर भगवान् के आगे रोये, हे नाथ! आप क्यों नहीं आये? आप तो दास के अपराधों की ओर देखते ही नहीं। भगवान् के लिये विलाप करे और कभी-कभी यह समझकर कि भगवान् हमारे पास ही बैठे हैं, उनसे बात करे। स्वयं ही प्रश्न करे और स्वयं ही उत्तर भी दे। मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा से खूब डरना चाहिये।  जन-समूह का संग कम करना चाहिये। मनुष्य जैसा संग करता है वैसा ही प्रभाव उसपर होता है।  जो मनुष्य आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर सके, उसके लिये शास्त्र यही आज्ञा देगा कि ब्रह्मचर्य का पालन करो और भगवान् की भक्ति करो।  बसहिं भगति मनि जेहि उर माहीं । खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥ भगवान् के ऊपर निर्भर रहना चाहिये, वे ही सब प्रकार निभाते हैं, उनका काम यही है। खूब विश्वास रखना चाहिये। निश्चिन्त रहना चाहिये। बिलकुल चिन्ताकी गुंजाइश ही नहीं दे। हमें किस चीजका भय है?  स्त्रियों में स्त्रियों द्वारा ही प्रचार करना ठीक है । बहुत-सी स्त्रियाँ इकट्ठी होकर सत्संग करें तो अच्छी बात है। कुछ भी चाहना नहीं करें। प्रेम करनेके योग्य परमात्मा ही हैं। - श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी  पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर


कलयुग में बहुत-से भक्त हुए हैं। नरसी, सूरदास तुलसीदास जी, गौरांग महाप्रभु आदि जीवनी से प्रतीत होता है कि उनको भगवान् की प्राप्ति हुई थी।
ईश्वर प्रेम से मिलते हैं, इसमें कोई देश, काल बाधक नहीं है। भगवान् सभी जगह हैं, वे सभी जगह मिल सकते हैं। यदि ऐसा होता कि भगवान् हरिद्वार में होते तो हरिद्वार में ही मिलते, लाहौर, अमृतसर में नहीं, परन्तु वे सब जगह हैं। उनके लिये कोई काल बाधक नहीं है। सतयुग में भगवान् का भजन, ध्यान करनेवाले अधिक थे, तब कानून कड़ा था। अब जब भजन करने वाले कम हुए तो कानून भी हलका हो गया।
सबसे बढ़कर भगवान् का भजन, ध्यान, नाम का जप और सत्-पुरुषों का संग है। पानी का जल, वाटर, नीर कुछ भी कहो एक ही बात है, इसी प्रकार हरि, राम, अल्लाह, गॉड एक ही बात है। भाषा अलग है, चीज वही है। हम को जो नाम अधिक रुचिकर हो वही हमारे लिये हितकर है। सभी भगवान् के नाम हैं।
जो निराकार के उपासक हों उनके लिये ॐ नाम बताया गया है। जो राम के उपासक हैं उनके लिए राम, कृष्ण के उपासक हो उनके लिये कृष्ण नाम है। वस्तु से दो चीज नहीं है, किन्तु एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा कभी विष्णु रूप से, कभी राम रूप से, कभी कृष्ण रूप से प्रकट होते हैं, वस्तु एक ही है। विष्णुसहस्रनाम में भगवान् विष्णु के एक हजार नाम लिखे हैं। चाहे जिस नाम से उन्हें पुकारो। जिसको जिस नाम से प्राप्ति होती है, वह उसी नाम को श्रेष्ठ बताते हैं। नाम सब भगवान् के ही हैं।
 मिश्री किसी प्रकार भी खाओ, मुँह मीठा ही होगा। यह बात अवश्य है कि माला पर जप करनेसे से संख्या की गिनती रखने से नाम-जप अधिक हो सकता है, किन्तु हर काम करते समय नाम-जप करते ही रहें।
गोपियाँ हर-एक पदार्थ में भगवान् का दर्शन किया करती थीं। काम करते समय भी और काम नहीं करते समय भी।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
भगवान् के प्रेमी निर्बल नहीं होते। वे सब कुछ कर सकते हैं। भगवान् उनके अधीन हो जाते है। दुर्वासा ऋषि भगवान् के पास गये। अपना अपराध क्षमा करनेके लिये प्रार्थना की। भगवान् ने कहा-यह मेरे हाथ की बात नहीं है। मैं तो भक्त के अधीन हूँ। आप अम्बरीष के पास ही जायँ ।
 भगवान् विश्वास के योग्य हैं। उनमें विश्वास करनेसे काम हो जाता है। हजारों मनुष्यों में कोई एक पुरुष ही भगवान् की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है। उन भक्तों में भी किसी एक भक्त के ही भगवान् अधीन होते हैं। भगवान् की प्राप्ति बहुत कठिन नहीं है, किन्तु दूसरों को भगवान् की प्राप्ति करा देना यह कठिन बात है।
एक पुरुष भगवान् को स्वयं प्राप्त कर लेता है और एक दूसरों को भी प्राप्त करा सकता है। ऐसे पुरुष मिलने बहुत कठिन हैं। गौरांग महाप्रभु में यह माना जा सकता है कि वे दूसरोंको भी प्राप्ति करा सकते थे।
प्रश्न-आप आशीर्वाद दे दीजिये।
उत्तर-आशीर्वाद वे ही दे सकते हैं, जिनको भगवान् ने अधिकार दे रखा है। मैं साधारण मनुष्य हूँ आशीर्वाद और वरदान वे ही पुरुष दे सकते हैं, जिनके पास अधिकार होता है। मुझे भी भगवान् अधिकार दे देते तो मैं भी आशीर्वाद दे देता। मैं यदि आशीर्वाद दूँ तो बिना अधिकार रजिस्ट्री करने वाले की जैसी फजीहत होती है वैसी ही मेरी भी होगी।
प्रश्न-माला कौन-सी फेरनी चाहिये?
उत्तर-जो शंकर की उपासना करता है उसके लिये रुद्राक्ष की और कृष्ण, राम, विष्णु की उपासना करने वाले के लिये तुलसी या चन्दन की उत्तम मानी गई है।
एकांत में बैठकर भगवान् के आगे रोये, हे नाथ! आप क्यों नहीं आये? आप तो दास के अपराधों की ओर देखते ही नहीं। भगवान् के लिये विलाप करे और कभी-कभी यह समझकर कि भगवान् हमारे पास ही बैठे हैं, उनसे बात करे। स्वयं ही प्रश्न करे और स्वयं ही उत्तर भी दे।
मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा से खूब डरना चाहिये।
जन-समूह का संग कम करना चाहिये। मनुष्य जैसा संग करता है वैसा ही प्रभाव उसपर होता है।
जो मनुष्य आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर सके, उसके लिये शास्त्र यही आज्ञा देगा कि ब्रह्मचर्य का पालन करो और भगवान् की भक्ति करो।
बसहिं भगति मनि जेहि उर माहीं । खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥
भगवान् के ऊपर निर्भर रहना चाहिये, वे ही सब प्रकार निभाते हैं, उनका काम यही है। खूब विश्वास रखना चाहिये। निश्चिन्त रहना चाहिये। बिलकुल चिन्ताकी गुंजाइश ही नहीं दे। हमें किस चीजका भय है?

स्त्रियों में स्त्रियों द्वारा ही प्रचार करना ठीक है । बहुत-सी स्त्रियाँ इकट्ठी होकर सत्संग करें तो अच्छी बात है। कुछ भी चाहना नहीं करें। प्रेम करनेके योग्य परमात्मा ही हैं।

- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 

पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर  


मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 2



भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 


Jaydayal Ji Goyandka जब अपने भावना ही करनी है तो ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये। ऊँची भावना क्या है?  सो अनन्य जाके असि मति न टर हनुमंत।  मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥  भगवान् गीता में कहा है—  बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।  वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥  (गीता ७। १९)  बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।  भगवान् ने दया करके मनुष्य शरीर दे दिया, यह अन्तका जन्म ही है। चौरासी लाख योनियोंमें में मनुष्य शरीर अंतिम है। साधन करके उससे काम बना ले तो यह अन्तिम जन्म है। यह धारणा करनी चाहिये कि भगवान् ही अनेक रूप धारण करके लीला कर रहे हैं। क्रिया मात्र भगवान् की लीला है । वस्तु मात्र भगवान् का स्वरूप है।  भगवान् बछड़े बन गये थे, वह लीला थी। यदि हम यह समझ लें कि सारे रूप भगवान् ने धारण कर रखे हैं तो सब में भगवत्-भाव भी हो गया और श्रवण भी हो गया| यह बहुत ऊँची श्रेणीकी बात है।  भगवान् का मिलना सुगम-से सुगम और कठिन से कठिन है। जिसमें श्रद्धा, विश्वास है उसके लिये बहुत सुगम है, जिसमें श्रद्धा, विश्वास की कमी है उसके लिये कठिन से कठिन है।  अपने भगवान् को कठिन मान लिया है, इसलिये विलम्ब हो रहा है। आपने साधन थोड़ा किया और मान बहुत लिया। आप हिसाब लगायें, आप कितने समय भजन करते हैं और कितने समय दूसरा काम करते हैं।   एक करोड़ रुपये नित्य कमानेवाला भी कहता है कि कम है। इसी तरह यदि चौबीसों घण्टे भजन होने लगे तो वह भी कहेगा अभी भजन थोड़ा होता है।  माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माहि ।  मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे यह तो सुमरिन नाहिं॥  हम जो साधन करते हैं, वह बेगार की तरह करते हैं। प्रेम हो जाय तो भजन छूट ही नहीं सकता। जैसे प्रह्लाद, मीरा आदि को कितनी कठिनाई हुई, पर उनसे भजन नहीं छूटा।  भजन करते हुए सब रोमों से नाम-जप हो। यह बात बहुत प्रेम, श्रद्धा से करे तब मालूम पड़ता है। भजन श्रद्धा-विश्वास से करे। भजन पापों का नाश मानना भूल है, क्योंकि अन्धकारका नाश तो सूर्य भगवान् के आभास मात्र से हो जाता है। सूर्य से फिर क्या कहे कि हे सूर्य भगवान् ! अन्धकार का नाश कर दें। उसी तरह भगवान् स्मरणमात्रसे ही पापों का नाश हो जाता है।   पारस से संत श्रेष्ठ हैं। संतों से नाम श्रेष्ठ है, जिससे भगवान् की प्रतिष्ठा है। भगवान् नामसे बढ़कर श्रेष्ठ हैं। भगवान् सबसे श्रेष्ठ हैं। जो भगवान् को सबसे श्रेष्ठ समझ लेता है, वह उनको सब प्रकारसे भजता है। वह कभी परमात्मा भूल नहीं सकता।  यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।  स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥  (गीता १५ । १९)     हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।      - श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी  पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर


जब अपने भावना ही करनी है तो ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये। ऊँची भावना क्या है?
सो अनन्य जाके असि मति न टर हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
भगवान् गीता में कहा है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
(गीता ७। १९)
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।
भगवान् ने दया करके मनुष्य शरीर दे दिया, यह अन्तका जन्म ही है। चौरासी लाख योनियोंमें में मनुष्य शरीर अंतिम है। साधन करके उससे काम बना ले तो यह अन्तिम जन्म है। यह धारणा करनी चाहिये कि भगवान् ही अनेक रूप धारण करके लीला कर रहे हैं। क्रिया मात्र भगवान् की लीला है । वस्तु मात्र भगवान् का स्वरूप है।
भगवान् बछड़े बन गये थे, वह लीला थी। यदि हम यह समझ लें कि सारे रूप भगवान् ने धारण कर रखे हैं तो सब में भगवत्-भाव भी हो गया और श्रवण भी हो गया| यह बहुत ऊँची श्रेणीकी बात है।
भगवान् का मिलना सुगम-से सुगम और कठिन से कठिन है। जिसमें श्रद्धा, विश्वास है उसके लिये बहुत सुगम है, जिसमें श्रद्धा, विश्वास की कमी है उसके लिये कठिन से कठिन है।
अपने भगवान् को कठिन मान लिया है, इसलिये विलम्ब हो रहा है। आपने साधन थोड़ा किया और मान बहुत लिया। आप हिसाब लगायें, आप कितने समय भजन करते हैं और कितने समय दूसरा काम करते हैं।
 एक करोड़ रुपये नित्य कमानेवाला भी कहता है कि कम है। इसी तरह यदि चौबीसों घण्टे भजन होने लगे तो वह भी कहेगा अभी भजन थोड़ा होता है।
माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे यह तो सुमरिन नाहिं॥
हम जो साधन करते हैं, वह बेगार की तरह करते हैं। प्रेम हो जाय तो भजन छूट ही नहीं सकता। जैसे प्रह्लाद, मीरा आदि को कितनी कठिनाई हुई, पर उनसे भजन नहीं छूटा।
भजन करते हुए सब रोमों से नाम-जप हो। यह बात बहुत प्रेम, श्रद्धा से करे तब मालूम पड़ता है। भजन श्रद्धा-विश्वास से करे। भजन पापों का नाश मानना भूल है, क्योंकि अन्धकारका नाश तो सूर्य भगवान् के आभास मात्र से हो जाता है। सूर्य से फिर क्या कहे कि हे सूर्य भगवान् ! अन्धकार का नाश कर दें। उसी तरह भगवान् स्मरणमात्रसे ही पापों का नाश हो जाता है।
 पारस से संत श्रेष्ठ हैं। संतों से नाम श्रेष्ठ है, जिससे भगवान् की प्रतिष्ठा है। भगवान् नामसे बढ़कर श्रेष्ठ हैं। भगवान् सबसे श्रेष्ठ हैं। जो भगवान् को सबसे श्रेष्ठ समझ लेता है, वह उनको सब प्रकारसे भजता है। वह कभी परमात्मा भूल नहीं सकता।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५ । १९)

हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।


- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 
पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर  

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 1


भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये 

भावना ऊँची-से-ऊँची करनी चाहिये कोड- 2027 प्रवचन दिनांक-१२-५-१९५९, गंगेहरकी कुटिया, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम। अपने मनके अनुकूल या प्रतिकूल जो भी घटना होती है, वह अपने लिये भगवान् की मंगलमय विधान है, उसके प्राप्त होनेपर प्रसन्न रहे। प्रभु मंगल करनेवाले हैं, वे अनिष्ट करते ही नहीं।  सत्संग कर रहे हैं, कोई नास्तिक आ जाय और अंट-शंट पूछने लगे तो विघ्न नहीं समझे, उसमें प्रसन्न रहे। यदि विघ्न माने तो नीची श्रेणी है। वह भगवान् का भेजा हुआ है, भगवान् परीक्षा ले रहे हैं। अगर विघ्न मान लिया तो अनुत्तीर्ण हो गये, यदि उसे पुरस्कार मान ले तो पुरस्कार है।  बीमारी आती है तो चिकित्सा करनी चाहिये। जैसे प्यास लगती है तो जल पीनेसे प्यास दूर होती है, इसी तरह औषधि लेनेसे रोग दूर होने लगे तो प्रसन्न नहीं होना चाहिये। यदि रोग बढ़ता है तो दुखी नहीं होना चाहिये। कोई द्वेष भावना आ जाय तो चुप हो जाना चाहिये। मन के अनुकूल में उतनी शिक्षा नहीं है, जितनी प्रतिकूलमें मिलती है। प्रतिकूलतामें द्वेष, क्रोध, स्पर्धा आदि नहीं हों तो यह उत्तम बात है।  क्रोध का अवसर आपके नहीं आया और आपको क्रोध नहीं हुआ तो उससे क्या पता चले कि क्रोध जीता गया है या नहीं, क्रोध की स्थिति आनेपर क्रोध नहीं हो तब पता चले। भगवान् की दया को इतनी छोटी बना दी कि स्त्री, पुत्र, धन में ही दया मान ली। यह आत्मकल्याण करनेवाली नहीं है, इनमें समता रहनी चाहिये। यदि इनमें ही दया मान ली तो डूब जाता है। भगवान् की  दया सकाम भाव से मान ले तो नीचे गिरने की सम्भावना है। प्रतिकूल में दया माने तो ऊँचा उठाने वाली है। रोग आये तो भगवान् चेताते हैं कि मृत्यु आने वाली है, भगवान् सावधान करते हैं। रोग पाप का फल है निश्चिन्त होकर कैसे सो रहा है। यदि उस रोग को परम तप मान ले तो वह पाप तप हो जाता है। मैं जब अस्वस्थ हुआ, तब मैंने शरीरमें खोजा, किन्तु वहाँ भोक्ता नहीं मिला। प्रश्न-भगवत्प्राप्ति शीघ्र कैसे हो ? उत्तर-भगवान कहते हैं— यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ (गीता ६ । ३०) जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेव अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।  जब भगवान कहते हैं तो मान ही लेना चाहिये। नहीं मानते है तो भगवान वचनोंमें विश्वास कहाँ है? आश्चर्य करना चाहिये कि ऐसा क्यों नहीं होता है। वैराग्य की तीव्रता राग-द्वेषको खा जाती है। समता उसका फल है। सार बात बतलाता हूँ।  पहली बात-भक्ति या ज्ञानके नशेमें चूर रहे। यह पता ही नहीं रहे कि संसार में क्या हो रहा है?  दूसरी बात- भगवान् का हृदय पुष्प से भी बढ़कर कोमल है और वज्रसे भी बढ़कर कठोर है। श्रद्धालुओं के लिये वज्रसे भी बढ़कर कठोर है और श्रद्धालुके लिये कोमल है। भगवान जब अवतार लेते हैं तब ये कार्य करते हैं— परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ (गीता ४। ८)  साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्म की अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।  माता, पिता, गुरु आदि की मार में परम लाभ है। भगवान ने महाभारत युद्ध में शस्त्र नहीं लिया, जिससे दुर्योधन आदि की मुक्ति नहीं हुई। जिसकी जैसी भावना होती है उनको भगवान उसी तरहसे दीखते हैं— जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥ एक स्त्री है वह शेर, कामी, विरक्त, बच्चे और भक्त सबको अलग-अलग दीखती है। इसी तरह भगवान भी सबको अपनी भावना के अनुसार अलग-अलग दीखते हैं। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र जी जब कंस रंगभूमि में मल्ल युद्ध के लिये गये थे तब वहाँ उपस्थित लोगोंको  अपनी-अपनी भावना के अनुसार दीखे— मल्लाना नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः। मृत्यु भोजपतेर्विराड विदुषां तत्त्वं परं योगिनां वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण १०। ४३ । १७)  जिस समय भगवान श्री कृष्ण बलराम जी के साथ रंगभूमि में पधारे, उस समय वे पहलवानोंको को वज्र कठोर शरीर, साधारण मनुष्य को नर-रत्न, स्त्रियों को मूर्तिमान् कामदेव, गोपों को स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिता के समान बड़े-बूढ़ों को शिशु, कंस को मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियों को परम तत्त्व और भक्त शिरोमणि वृष्टिवंशियों को अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद्भुत, शृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेम भक्ति रस का अनुभव किया)।

अपने मनके अनुकूल या प्रतिकूल जो भी घटना होती है, वह अपने लिये भगवान् की मंगलमय विधान है, उसके प्राप्त होनेपर प्रसन्न रहे। प्रभु मंगल करनेवाले हैं, वे अनिष्ट करते ही नहीं।
सत्संग कर रहे हैं, कोई नास्तिक आ जाय और अंट-शंट पूछने लगे तो विघ्न नहीं समझे, उसमें प्रसन्न रहे। यदि विघ्न माने तो नीची श्रेणी है। वह भगवान् का भेजा हुआ है, भगवान् परीक्षा ले रहे हैं। अगर विघ्न मान लिया तो अनुत्तीर्ण हो गये, यदि उसे पुरस्कार मान ले तो पुरस्कार है।
 बीमारी आती है तो चिकित्सा करनी चाहिये। जैसे प्यास लगती है तो जल पीनेसे प्यास दूर होती है, इसी तरह औषधि लेनेसे रोग दूर होने लगे तो प्रसन्न नहीं होना चाहिये। यदि रोग बढ़ता है तो दुखी नहीं होना चाहिये। कोई द्वेष भावना आ जाय तो चुप हो जाना चाहिये। मन के अनुकूल में उतनी शिक्षा नहीं है, जितनी प्रतिकूलमें मिलती है। प्रतिकूलतामें द्वेष, क्रोध, स्पर्धा आदि नहीं हों तो यह उत्तम बात है।
 क्रोध का अवसर आपके नहीं आया और आपको क्रोध नहीं हुआ तो उससे क्या पता चले कि क्रोध जीता गया है या नहीं, क्रोध की स्थिति आनेपर क्रोध नहीं हो तब पता चले। भगवान् की दया को इतनी छोटी बना दी कि स्त्री, पुत्र, धन में ही दया मान ली। यह आत्मकल्याण करनेवाली नहीं है, इनमें समता रहनी चाहिये। यदि इनमें ही दया मान ली तो डूब जाता है। भगवान् की  दया सकाम भाव से मान ले तो नीचे गिरने की सम्भावना है।
प्रतिकूल में दया माने तो ऊँचा उठाने वाली है। रोग आये तो भगवान् चेताते हैं कि मृत्यु आने वाली है, भगवान् सावधान करते हैं। रोग पाप का फल है निश्चिन्त होकर कैसे सो रहा है। यदि उस रोग को परम तप मान ले तो वह पाप तप हो जाता है। मैं जब अस्वस्थ हुआ, तब मैंने शरीरमें खोजा, किन्तु वहाँ भोक्ता नहीं मिला।
प्रश्न-भगवत्प्राप्ति शीघ्र कैसे हो ?
उत्तर-भगवान कहते हैं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६ । ३०)
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेव अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
जब भगवान कहते हैं तो मान ही लेना चाहिये। नहीं मानते है तो भगवान वचनोंमें विश्वास कहाँ है? आश्चर्य करना चाहिये कि ऐसा क्यों नहीं होता है। वैराग्य की तीव्रता राग-द्वेषको खा जाती है। समता उसका फल है। सार बात बतलाता हूँ।
पहली बात-भक्ति या ज्ञानके नशेमें चूर रहे। यह पता ही नहीं रहे कि संसार में क्या हो रहा है?

दूसरी बात- भगवान् का हृदय पुष्प से भी बढ़कर कोमल है और वज्रसे भी बढ़कर कठोर है। श्रद्धालुओं के लिये वज्रसे भी बढ़कर कठोर है और श्रद्धालुके लिये कोमल है। भगवान जब अवतार लेते हैं तब ये कार्य करते हैं
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(गीता ४। ८)
साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्म की अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
माता, पिता, गुरु आदि की मार में परम लाभ है। भगवान ने महाभारत युद्ध में शस्त्र नहीं लिया, जिससे दुर्योधन आदि की मुक्ति नहीं हुई। जिसकी जैसी भावना होती है उनको भगवान उसी तरहसे दीखते हैं—
जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥
एक स्त्री है वह शेर, कामी, विरक्त, बच्चे और भक्त सबको अलग-अलग दीखती है। इसी तरह भगवान भी सबको अपनी भावना के अनुसार अलग-अलग दीखते हैं। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र जी जब कंस रंगभूमि में मल्ल युद्ध के लिये गये थे तब वहाँ उपस्थित लोगोंको  अपनी-अपनी भावना के अनुसार दीखे—
मल्लाना नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।
मृत्यु भोजपतेर्विराड विदुषां तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः॥
(श्रीमद्भागवत महापुराण १०। ४३ । १७)
 जिस समय भगवान श्री कृष्ण बलराम जी के साथ रंगभूमि में पधारे, उस समय वे पहलवानोंको को वज्र कठोर शरीर, साधारण मनुष्य को नर-रत्न, स्त्रियों को मूर्तिमान् कामदेव, गोपों को स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिता के समान बड़े-बूढ़ों को शिशु, कंस को मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियों को परम तत्त्व और भक्त शिरोमणि वृष्टिवंशियों को अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद्भुत, शृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेम भक्ति रस का अनुभव किया)।

- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी 
पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर