※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

गीता महिमा


श्रीहरिः
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण पंचमी, मंगलवारवि० स० २०७०


गीताके समान संसारमें कोई ग्रन्थ नहीं है। सभी मत इसकी उत्कृष्टता स्वीकार करते हैं। अतः हमें गीताका इतना अभ्यास करना चाहिये कि हमारी आत्मा गीतमय हो जाय। हमें उसे अपने हृदयमें  बसाना चाहिये। गीता गंगासे भी बढ़कर है, क्योंकि गंगा भगवान् के चरणोंसे निकली है और गीता भगवान् के मुखकमलसे निकली है; गंगा तो अपनेमें स्नान करनेवालोंको ही पवित्र करती है किन्तु गीता धारण करनेसे घर बैठे हुएको पवित्र कर देती है। गंगामें स्नान करनेवाला स्वंय मुक्त हो सकता है पर गीतामें अवगाहन करनेवाला तो दूसरोंको भी मुक्त कर सकता है। 


अतएव यह सिद्ध हुआ कि गीता गंगासे भी बढ़कर है। गीताका पाठमात्र करनेवालेकी अपेक्षा उसके अर्थ और भावको समझनेवाला श्रेष्ट है और गीताके अनुसार आचरण करनेवाला तो उससे भी श्रेष्ट है। 



इसलिए सबको अर्थ और भावसहित गीताका अध्ययन करते हुए उसके अनुसार अपना जीवन बनना चाहिये। 

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , - 'भगवद दर्शनकी उत्कंठापुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 
                                   

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

परमार्थसूत्र-संग्रह - चेतावनी


श्रीहरिः
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, सोमवारवि० स० २०७०


* प्रथम तो मनुष्य का शरीर मिलना कठिन है और यदि मिल जाये तो भी भारतभूमि में जन्म होना, कलियुग में होना तथा वैदिक सनातन धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है | इससे भी दुर्लभतर शास्त्रों के तत्व और रहस्य बतलाने वाले पुरुषो का संग है | इसलिये जिन पुरुषो को उपयुक्त संयोग प्राप्त हो गए है, वे यदि परमशांति और  परमआनंदायक परमात्मा की प्राप्ति से वंचित रहे तो इससे बढकर उनकी मूढ़ता क्या होगी |

* चींटी से लेकर देवराज इंद्र की योनी तक को हम लोग भोग चुके है, किन्तु साधन न होने के कारण हमलोग भटक रहे है और जब तक तत्पर होकर साधन नहीं करेंगे तबतक भटकते ही रहेंगे |

* मनुष्य-जन्म सबसे उतम एवं अत्यंत दुर्लभ और भगवान् की विशेष कृपा का फल है | ऐसे अमूल्य जीवन को पाकर जो मनुष्य आलस्य, भोग,प्रमाद और दुराचार में समय बिता देता है वह महान मूढ़ है | उसको घोर पश्चाताप करना पड़ेगा |

* समय बड़ा मूल्यवान है |मनुष्य का शरीर मिल गया, यह भगवान की बड़ी दया है | अब भी यदि भगवद प्राप्ति से वंचित रह गए तो हमारे सामान मूर्ख कौन होगा | हमे अपने अमूल्य समय को अमूल्य कार्य में ही लगाना चाहिये | भगवान की स्मृति अमूल्य है | इस प्रकार नित्य विचार करना चाहिये |

* यह मनुष्य शरीर हमे बार-बार नहीं मिलने का | ऐसे दुर्लभ अवसर को यदि हमने हाथ से खो दिया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ हाथ नहीं लगेगा |

* भगवान ने हमे मुक्ति का पासपोर्ट दे दिया है | अब जो कुछ कमी है वह केवल हमारी ओरसे है !

* यह जीवन हमे सांसारिक भोग भोगने के लिए नहीं मिला है |

* बारम्बार विचार करना चाहिये की आप किस लिए आये थे, यहाँ क्या करना चाहिये और आप क्या कर रहे है |

* जब आपका शरीर छूट जाएगा तब शरीर और रूपये किस का आवेंगे? सब कुछ मिट्टी में मिल जायेगा |
नारायण   नारायण  नारायण    नारायण    नारायण 

परमार्थसूत्र-संग्रह ,जयदयाल गोयन्दका,पुस्तक कोड-५४३,गीताप्रेस, गोरखपुर 

रविवार, 28 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें -१४-अंतिम


श्रीहरिः
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण तृतीया, रविवारवि० स० २०७०



{इस पुस्तक का सबसे विशेष भाग - }

शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं ।

परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य को अर्थ और भाव के सहित शास्त्रों का अनुशीलन और एकान्त में बैठकर जप-ध्यान तथा आध्यात्मिकविषय का विचार नियमपूर्वक  नित्य करना चाहिये ।

अनिच्छा या परेच्छा से होने वाली घटना को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मान लेने पर काम- क्रोध आदि शत्रु पास नहीं आ सकते, जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धकार नहीं आ सकता ।

जीव, ब्रह्म और माया के तत्त्व को समझनेके लिये एकान्त में बैठकर विवेक और वैराग्ययुक्त चित्तसे नित्यप्रति परमात्मा का चिंतन करते हुए अध्यात्म-विषय का विचार करना चाहिये

जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।

जो अपने-आप को ईश्वरके अर्पण कर चुका है और ईश्वरपर ही निर्भर है, उसकी सदा-सर्वदा सब प्रकार से ईश्वर रक्षा करता है, इससे वह सदा के लिये निर्भय-पदको प्राप्त हो जाता है ।

प्रेमपूर्वक जप सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग, विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।

भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।

सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने –आप ही आ जाते हैं ।

वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 


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शनिवार, 27 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें -१३-



श्रीहरिः
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण द्वितीयाशनिवारवि० स० २०७०



शौचाचारसे सदाचार बहुत ऊँचा है, उस से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की चीज है ।

भगवान् जाती-पाँति कुछ नहीं देखते, केवल असली प्रेम ही देखते हैं, अत: मनुष्यको केवल भगवान् से ही प्रेम करना चाहिये ।

ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिससे उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगते हैं ।

भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रोंको हर समय याद करते हुए मुग्ध रहना चाहिये ।

भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन करने से श्रद्धा होती है ।

एकान्त में भगवान् के आगे करूण भाव से रोते हुए स्तुति प्रार्थना करने से भी श्रद्धा बढती है ।

ऊपर बतलाई हुयी बातों पर विश्वास करके उनके अनुसार अनुष्ठान करने से भी श्रद्धा होती है ।

श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही होने लगता है ।

माता,पिता,पति,स्वामी,ज्ञानी, महात्मा, और गुरुजनों की श्रद्धा पूर्वक नि:स्वार्थ सेवासे आत्माका शीघ्र कल्याण हो सकता है ।

निष्कामकर्म और भगवान् के नाम-जपसे, धारणा और ध्यान से एवं सत्संग और स्वाध्याय से मल-विक्षेप और आवरण का सर्वथा नाश होकर भगवत्प्राप्ति शीघ्र हो सकती है ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

भारतीय संस्कृति और गीताप्रेस

सत्संग की कुछ सार बातें-१२-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, शुक्रवारवि० स० २०७०




अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।

मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।

ब्रह्मचर्य के पालन पर हरेक मनुष्य को विशेष ध्यान देना चाहिये ।

कामकी उत्पत्ति संकल्प से होती है, सुन्दर जवान स्त्री और बालक आदि के संगसे ब्रह्मचर्यका नाश होता है ।

गृहस्थी मनुष्यको महीने में एक बार से अधिक स्त्री-प्रसंग नहीं करना चाहिये । ऋतुकाल पर महीनेमें एक बार स्त्री-प्रसंग करने वाला गृहस्थी ब्रह्मचारी के तुल्य है।

जीते हुए मन-इन्द्रिय मित्र के सामान है और न जीते हुए विषयासक्त मन-इन्द्रिय शत्रु के सामान हैं ।

शरीर और संसार में जो आसक्ति है , वही सारे अनर्थों का मूल है, उसका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
कोई भी सांसारिक भोग खतरे से खाली नहीं, इसलिये उससे दूर रहना चाहिये ।
कंचन, कामिनी, मान, बडाई, ईर्ष्या, आलस्य, प्रमाद, ऐश , आराम, भोग, दुर्गुण और पाप को साधन में महान विघ्न समझकर इनसबका विषके तुल्य सर्वथा त्याग करना चाहिये  ।

ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सद्गुण, सदाचार, सेवा, और संयमको अमृत के सामान समझकर सदा सर्वदा इनका सेवन करना चाहिये ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें-११-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र पूर्णिमा,  गुरुवारवि० स० २०७०




स्वार्थ का त्याग सामान व्यवहारसे भी श्रेष्ठ है, इसलिये नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करनी चाहिये ।

स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतिके और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।

विधवा स्त्री के लिये तो विषय-भोगों से वैराग्य, ईश्वर की भक्ति, सद्गुण-सदाचारका पालन और नि:स्वार्थभावसे सबकी सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है ।

दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नहीं है और सुख पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।

कुटुम्ब, ग्राम, जिला, प्रान्त, देश, द्वीप, पृथ्वी और त्रिलोकीतक उत्तर-उत्तरवाले के हित के लिये पूर्व-पूर्व वाले के हितका त्याग कर देना चाहिये । { अर्थात् :~ पृथ्वीके हितके लिए द्वीपके हित, द्वीपके हितके लिए देश के हित, देशके हितके लिए प्रांतके हित का त्याग कर देना चाहिये। } 

किसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये ।

किसी का उपकार करके उसपर अहसान न करे, न किसी से कहे और न मनमे अभिमान ही करे; नहीं तो किया हुआ उपकार क्षीण हो जाता है । ऐसा समझे कि सब कुछ भगवान् करवाते हैं, मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।

अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होता है ।

यदि अनिष्ट करने-वाले को दण्ड देने से उसका उपकार होता हो तो ऐसी अवस्था में उसे दण्ड देनेमें दोष नहीं है ।

अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपना उपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें-१०-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, त्रयोदशी-चतुर्दशी,  बुधवारवि० स० २०७०



श्रद्धालु मनुष्य के लिये तो महात्मा का प्रभाव माने जितना ही थोडा है; क्योंकि महात्मा का प्रभाव अपरिमेय है ।

महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।

महापुरुषों की चेष्टा उनके तथा लोगों के प्रारब्धसे होती है एवं लोगों के श्रद्धा-प्रेम तथा ईश्वराज्ञा  से भी होती हैं ।

सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।

पैसे न्याय से ही पैदा करे, अन्याय से कभी नहीं, चाहे भूखों मरना पड़े ।

ईश्वर भक्ति और धर्म को कभी छोड़े ही नहीं,प्राण भले ही चले जायँ ।

धैर्य,क्षमा,मनोनिग्रह,अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि, अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।

विपत्तिमें भगवान् की स्मृति बनी रहे, इसलिये कुन्तीने भगवान् से निरंतर विपत्तिके लिये प्रार्थना की ।

पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।

महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं किया ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें -९ -


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, द्वादशी,  मंगलवारवि० स० २०७०

संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।

सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।

महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्धके अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की सिद्धि या अशिद्धि में उनके हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही संकल्प और स्फुरणा का भेद है ।

आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।

निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।

कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि मान और किर्तिको कलंक के सामान समझे ।
 हर समय संसार और शरीर को कालके मुख में देखे ।

मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।

जीवन्मुक्त, ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये वे संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।

जीते हुए ही जो शरीर को मुर्दे के सामान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात् जैसे प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!