दान में
महत्त्व है त्याग का, वस्तु के मूल्य या संख्या का नहीं | ऐसी त्याग बुद्धि से जो
सुपात्र को यानी जिस वस्तु का जिसके पास अभाव है , उसे वह वस्तु देना और उसमे किसी
प्रकार की कामना न रखना उत्तम दान है | निष्काम भाव से किसी भूखे को भोजन और
प्यासे को जल देना सात्विक दान है | संत श्रीएकनाथजी की कथा आती है कि वे एक समय
प्रयाग से काँवर पर जल लेकर श्रीरामेश्वरम् चढ़ाने के लिए जा रहे थे | रास्ते में
जब एक जगह उन्होंने देखा कि एक गधा प्यास के कारण पानी के बिना तड़प रहा है , उसे
देखकर उन्हें दया आ गयी और उन्होंने उसे थोड़ा-सा जल पिलाया , इससे उसे कुछ चेत-सा
हुआ | फिर उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके सब जल उसे पीला दिया | वह गदहा उठकर चला गया |
साथियों ने सोचा कि त्रिवेणी का जल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्फल हों गयी |
तब एकनाथजी ने हँसकर कहा – ‘भाइयो, बार-बार सुनते हो, भगवान सब प्राणियों के अंदर
हैं, फिर भी ऐसे बावलेपन की बात सोचते हो ! मेरी पूजा तो यहीं से श्रीरामेश्वरम को
पहुँच गयी | श्रीशंकर जी ने मेरे जल को स्वीकार कर लिया |’
बुधवार, 31 अक्तूबर 2012
सोमवार, 29 अक्तूबर 2012
संत- महिमा
बच्चा कभी अभिमानवश यह सोचता है की मैं अपने ही पुरषार्थसे चढ़ता हूँ, तब माता कुछ दूर हटकर कहती है, 'अच्छा चढ़ '! परंतु सहारा न पानेसे वह चढ़ नहीं सकता ! गिरने लगता है और रोता है, तब माता दौड़कर उसे बचाती है! इसी प्रकार अपने प्रयत्नका अभिमान करनेवाला भी गिर सकता है, परन्तु यह ध्यान रहे, भगवान् की कृपाका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य सब कुछ छोड़कर हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ जाय, कुछ भी न करे! ऐसा मानना तो प्रभुकी कृपाका दुरूपयोग करना है ! जब माता बच्चेको ऊपर चढ़ाती है, तब सारा कार्य माता ही करती है,परन्तु बच्चेको माताके आज्ञानुसार चेष्टा तो करनी ही पड़ती है ! जो बच्चा माँके इच्छानुसार चेष्टा नहीं करता या उससे विपरीत करता है, उसको माता उसके हितार्थ डरती-धमकाती है तथा कभी-कभी मारती भी है!
इस मारमें भी माँके ह्रदयका प्यार भरा रहता है, यह भी उसकी परम दयालुता है! इसी प्रकार भगवान् भी दयापरवश होकर समय -समयपर हमको चेतावनी देते हैं! मतलब यह कि जैसे बच्चा अपनेको और अपनी सारी क्रियाओंको माताके प्रति सौंपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमें भी अपने-आपको और अपनी सारी क्रियाओंको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उनके चरणोंमें पड़ जाना चाहिये! इस प्रकार बच्चेकि तरह परम श्रद्धा और विश्वासके साथ जो अपने-आपको परमात्माकी गोदमें सौंप देता है, वही पुरुष परमात्माकी कृपाका इच्छुक और पात्र समझा जाता है और इसके फलस्वरूप वह परमात्माकी दयासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है ! सारांश यह कि परमात्माकी प्राप्ति परमात्माकी दयासे ही होती है; दया ही एकमात्र कारण है ! परन्तु यह दया मनुष्यको अकर्मण्य नहीं बना देती ! परमात्माकी दयासे ही ऐसा परम पुरषार्थ बनता है! जीवका अपना कोई पुरषार्थ नहीं,वह तो निमित्तमात्र होता है !
शनिवार, 27 अक्तूबर 2012
जीवन-सुधार की बातें
प्रह्लादको कितना कष्ट दिया गया, उनकी माँग एक ही थी भगवान् की भक्ति ! पिता कहता है कि
इसको छोड़ दो, परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा ! हमारी एक ही माँग
होनी चाहीये भगवान् के दर्शन की, प्रहलाद की तरह हठ होना
चाहीये- इसीका का नाम सत्याग्रह है !दुनिया में जो लोग सत्याग्रह करते हैं वह तो
दुराग्रह है ! सत् परमात्मा है, उसके लिये आग्रह ही सत्याग्रह
है ! सच्चे स्वराज्य के लिये परिश्रम करना चाहीये, सच्चा
स्वराज्य मिले तो झूठा स्वराज्य इसके अंतर्गत है ! बड़े बड़े चक्रवर्ती राजा उनके
चरणों में लेटा करते थे जिनके हाथ में सच्चा स्वराज्य था ! जिनको परमात्मा की
प्राप्ति हो गयी है उनके पास ही सच्चा स्वराज्य है ! जब आपको सच्चा स्वराज्य मिल
जायेगा तो बड़े बड़े राजा महाराजा आपके चरणों की धूलि की आकांक्षा करेंगे ! लोग आपके
चरणों की धूलि की आकांक्षा करें इसके लिये आपको वह प्राप्त नहीं करना है !
आपको मैले की तरह मान-बडाई, प्रतिष्ठा को फेंक देना चाहीये !
जहाँ मन-बडाई, प्रतिष्ठा मिले उस स्थान में हम नहीं जायें !
जिस प्रकार मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा को अपना रखा है, उस तरह प्रभु को अपनाना चाहीये ! वे खड़े हैं तुम्हारी चिरोरी कर रहे हैं
कि यह स्थान दे तो मैं इसके ह्रदय में बैठूँ
! प्रभु को ह्रदय में बसाओ, यह सब नियमों का
सरदार है ! कुछ छोटे छोटे नियम बताये जाते हैं !
१ भोजन करने के समय जो कुछ प्राप्त हो जाये, मन ही मन सें उसे भगवान के समर्पण करना चाहीये ! उस समय जो
कुछ मिल गया वही प्रसाद है, फिर दुबारा नहीं लें ! नमक आदि
कम है, जो कुछ है वह प्रसाद है ! अब प्रसाद को बिगाड़ो मत,
जैसे खीर में धुल डालनी है ऐसे उस प्रसाद में नमक डालना है ! चीज भी
घर में चाहे ५० तरह कि बने एक ही लें तो उत्तम है, अन्यथा २
ले लें ! यदि ३ चीजें ले तो कामचोरी कि बात है, दूध और गंगाजल
तो खुला है ! यह बाहर का नियम है ! किन्तु इससें बड़ी रक्षा होती है ! संयम करना
चाहीये !
२ जिनके यज्ञोपवीत है बन सके तो सूर्योदय
के पूर्व तथा सूर्यास्त के पूर्व संध्या करनी चाहीये ! समय का बड़ा महत्व है !
महाभारत में जरत्कारू कि कथा है ! जरत्कारू ने कहा - मैं ठीक समय पर उपासना करता
हूँ ! जब तक मैं सूर्य कि उपासना नहीं कर लूँगा तब तक क्या सूर्य अस्ताचल को जा
सकते हैं ? नहीं जा सकते !
संध्योपासन क्या है ? ईश्वर कि उपासना है !
उसमे यदि साथ में प्रेम हो तो भगवान को उसी समय आना पड़े, किन्तु
प्रेम दुरी कि बात है ! नियम, समय और प्रेम तीन चीजें है,
नियम का मतलब नित्य करना ठीक समय पर करना. दो काम हो जाय तो पीछे
प्रेम रह जाता है ! पैंसठ पैसा काम हो गया, पैंतीस पैसा काम
बाकी रहा !
सूर्य भगवान के उदय होते समय हम प्रेम से पुष्पांजलि
के लिये खड़े हैं, उदय होते ही हमने पुष्पांजलि दे दी,
भगवान सूर्य प्रसन्न हो जाते हैं ! मरने के समय हम सूर्य भगवान सें प्रार्थना
करें - हे सूर्य देव ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरे
लिये वह मार्ग दीजिये जिससे अर्चिमार्ग कहते है, मैं
परमात्मा के दर्शन कि इच्छा करता हूँ, उनके दर्शन के लिये
द्वार खोल दें तो सूर्य भगवान प्रार्थना सुन लेते हैं ! यदि हमारा प्रेम हो जाय तब
तो भगवान यहीं आकार मिल जायें ! गायत्री मंत्र में और क्या बात है ?
स्तुति, ध्यान, प्रार्थना तीन चीजें है ! एक
ही जगह तीन चीज किसी मंत्र में नहीं है ! गायत्री मंत्र में स्तुति है और ध्यान है
! भगवान के तेज का वर्णन है ! उनका ध्यम करते हैं ! ध्यान करने के बाद मांग पेश
करते हैं, याचना भी बहुत उच्च कोटि कि है ! इस प्रकार समझकर
हम गायत्री का जप करें तो बेड़ा पार है ! गायत्री के अर्थ कि और ध्यान रखें या उसके
अर्थस्वरूप भगवान हैं, उनका ध्यान करें ! आप हजार गायत्री
मंत्र जप करते हैं, किन्तु इस प्रकार आप दस मंत्र का जप करें
तो दस मंत्र हजार से बढ़कर हैं ! बीस वर्ष से आप जप करते हैं भगवान नहीं मिले !
तुम्हारा मन संसार में डोलता है तो तुम भी संसार में डोलोगे ! गायत्री मंत्र आप इस
तरह जपें तो थोड़े ही समय में आपका कल्याण हो सकता है ! सन्ध्या में नियम, समय और प्रेम तीनो ही शामिल हो तो भगवान तुरंत मिलेंगे ! तीनों नहीं हो,
दो ही हो तो कभी तो मिलेंगे ही !
आप गीता पाठ करते हैं ! पाठ करते समय मुग्ध हो जाना
चाहीये और अर्थ का जो भाव है उसके रंग में रंग जाना चाहीये ! आप भगवान के किसी भी
नाम का जप करते है, नाम जप के साथ स्वरुप का ध्यान भी
करना चाहीये तथा गुण, प्रभाव कि और भी दृष्टि डालनी चाहीये !
आप एक घंटा भगवान का भजन करते हैं ! इस प्रकार करने सें २ घंटा लगे तो लगाने दो !
इस प्रकार ही करो ! आपके दस माला फेरने का या आठ माला फेरने का नियम ले रखा है,
वह चाहे कमती हो इस प्रकार करो !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण
नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी
गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर
]
संध्योपासन क्या है ? ईश्वर कि उपासना है ! उसमे यदि साथ में प्रेम हो तो भगवान को उसी समय आना पड़े, किन्तु प्रेम दुरी कि बात है ! नियम, समय और प्रेम तीन चीजें है, नियम का मतलब नित्य करना ठीक समय पर करना. दो काम हो जाय तो पीछे प्रेम रह जाता है ! पैंसठ पैसा काम हो गया, पैंतीस पैसा काम बाकी रहा !
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]
बुधवार, 24 अक्तूबर 2012
शक्तिका रहस्य
अब आगे........
`सर्व खल्विदं ब्रह्म` (छान्दोग्य०३।१४।१)
`वासुदेव सर्वामिति` (गीता ७।१९ )
`सदसच्चाहमर्जुन` (गीता ९।१९)
तथा माया ईश्वर कि शक्ति है और शक्तिमान् से
शक्ति अभिन्न होती है । जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से अभिन्न है,
इसलिये परमात्मा से इसे भिन्न भी नहीं कह सकते ।
चाहे जैसे तो तत्त्व को समझकर उस
परमात्मा कि उपासना करनी चाहिये । तत्त्व को समझकर की हुई उपासना ही सर्वोत्तम है । जो उस परमेश्वर तत्त्व से समझ जाता है, वह उसको एक क्षण भी नहीं भूल सकता, सब
कुछ परमात्मा ही है । इस प्रकार समझनेवाला परमात्मा को कैसे भूल सकता है ?
अथवा जो परमात्मा को सारे संसार से उत्तम
समझता है वह भी परमात्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु को कैसे भज सकता है ? यदि भजता है
तो परमात्माके तत्त्व को नहीं जानता है । क्योंकि यह नियम है कि
मनुष्य जिसको उत्तम समझता है उसीको भजता है यानि ग्रहण करता है ।
मान लीजिये एक पहाड़ है । उसमें लोहे, ताँबे, शीशे और सोने कि चार खान है । किसी ठेकेदार ने परिमित समय के लिये उन खानों को ठेके पर ले लिया और वह उससे माल
निकालना चाहता है । तथा चारों धातुओं में से किसी को भी निकाले, समय
करीब-करीब बराबर ही लगता है । इन चारों की कीमत को जानने वाला ठेकेदार सोनेके रहते
हुए सोने को छोड़कर क्या लोहा, ताँबा, शीशा निकालने के लिये क्या अपना समय लगा सकता
है ? कभी नहीं । सर्वप्रकार से वह तो केवल सुवर्ण ही निकालेगा । वैसे ही माया और परमेश्वर के तत्त्व जानने वाला परमेश्वर को छोड़कर नाशवान्
क्षणभंगुर भोग और अर्थ के लिये अपने अमूल्य समय को कभी नहीं लगा सकता । वह सब प्रकार से निरंतर परमात्मा को भी भजेगा । गीता में भी कहा है------
यो मामेवमसंमूढो जानाति
पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। (गीता १५।१९)
अर्थात `हे अर्जुन ! इस प्रकार
तत्त्व से जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार
से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है ।`
इस प्रकार ईश्वर की अनन्य भक्ति करने से मनुष्य परमेश्वरको
प्राप्त हो जाता है । इसलिये श्रद्धापूर्वक निष्काम प्रेमभाव से नित्य
निरन्तर परमेश्वर भजन,ध्यान करने के लिये प्राणपर्यन्त प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012
शक्तिका रहस्य
अब आगे.......
यदि इस माया को अनादि, अनन्त
बतलाया जाय तो इसका सम्बन्ध भी अनादि अनन्त होना चाहिये । सम्बन्ध अनादि, अनन्त मान लेने से जीवका कभी छुटकारा हो ही नहीं सकता और
भगवान् कहते हैं कि क्षेत्र, क्षेत्र के अन्तर को तत्त्व से समझ लेने पर जीव मुक्त
हो जाता है----
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये
विदुर्यान्ति ते परम् ।। (गीता १३।३४)
अर्थात् `इस प्रकार क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ के भेदको तथा विकारसहित प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष
ज्ञाननेत्रोंद्वारा तत्त्व को जानते है वे महात्माजन परब्रह्मपरमात्मा को प्राप्त होते हैं ।`
इसलिये इस माया को अनादि, अनन्त भी नहीं माना जा सकता । इसे न तो सत ही कहा जा सकता है और न असत ही । असत तो इसलिये नहीं कहा सकता कि इसका विकार रूप यह सारा संसार प्रत्यक्ष
प्रतीत होता है और सत इसलिये नहीं बतलाया जाता कि यह दृश्य जडवर्ग सर्वदा
परिवर्तनशील होने के कारण इसकी नित्य सम स्थिति नहीं देखी जाती ।
इस मायाको परमेश्वर से अभिन्न भी नहीं
कह सकते, क्योंकि माया यानी प्रकृति जड, दृश्य, दुःख स्वरुप विकारी है और परमात्मा
चेतन, दृष्टा, नित्य, आनंदरूप और निर्विकार है । दोनों अनादि होने पर भी परस्पर इनका बड़ा भरी अन्तर है ।
मायां तू प्रकृति विद्यान्मायिनं
तू महेश्वरम् । (श्वेता० ४।१०)
`त्रिगुणमयी मायाको तो प्रकृति (तेईस तत्त्व
जडवर्गका कारण ) तथा मायापतिको परमेश्वर मानना चाहिये ।
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे
त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गुढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य:।।(श्वेता०५।१)
`जिस सर्वव्यापी, अनन्त, अविनाशी, परब्रह्म,
अन्तर्व्यापी, परमात्मामें विद्या, अविद्या, दोनों गूढ़ भाव से स्थित हैं । अविद्या, क्षर है, विद्या अमृत है (क्योंकि विद्या से अविद्या पर शासन
करनेवाला है वह परमात्मा दोनोसे ही अलग है ।`
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।(गीता १५।१८)
अर्थात् `क्योंकि मैं नाशवान्
जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी
उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें भी पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ ।`
तथा इस माया को परमेश्वर से भिन्न भी नहीं कह
सकते । क्योंकि वेद और शास्त्रों में इसे ब्रह्म का रूप बतलाया है । शेष अगले ब्लॉग में...
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
सोमवार, 22 अक्तूबर 2012
शक्तिका रहस्य
अब आगे........
इस प्रकार गुणोंसे अतीत परमात्मा
को अच्छी प्रकार जानकर मनुष्य इस संसार के सारे दु:खों और क्लेशों से मुक्त होकर
परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । इसके जानने के लिये सबसें सहज उपाय उस परमेश्वर कि
अनन्य शरण है । इसलिये उस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द
परमात्मा कि सर्वप्रकार से शरण होना चाहिये ।
दैवी ह्योषा गुणमयी मम माया
दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां
तरन्ति ते ।। (गीता ७।१४)
अर्थात `क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी
दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मुझको ही निरंतर भजते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर
जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं ।`
विधा-अविधारूप त्रिगुणमयी यह महामाया बड़ी
विचित्र है । इसे कोई अनादि, अनन्त और कोई अनादि, सांत मानते हैं । तथा कोई इसको सत् और कोई असत् कहते हैं एवं कोई इसको ब्रह्म से अभिन्न और कोई
इसे ब्रह्म से भिन्न बतलाते हैं । वस्तुतः यह माया बड़ी विलक्षण है, इसलिये इसको
अनिवर्चनीय कहा है ।
अविधा—दुराचार, दुर्गुणरूप, आसुरी, राक्षसी,
मोहिनी, प्रकृति, महत्तत्वका कार्यरूप यह सारा संसार दृश्यवर्ग इसीका विस्तार है ।
विधा----भक्ति, पराभक्ति, ज्ञान,
विज्ञान, योग, योगमाया, समष्टि, बुद्धि, शुद्ध बुद्धि, सूक्ष्म बुद्धि, सदाचार,
सद्गुणरूप दैवी सम्पदा यह सब इसीका विस्तार है ।
जैसे ईंधन को भस्म करके अग्नि
स्वत: शान्त हो जाता है वैसे ही अविद्याका नाश करके विद्या स्वत: ही शान्त हो जाती
है, ऐसे मानकर यदि माया को अनादि-सांत बतलाया जाय तब यह दोष आता है कि यह आज से
पहले ही सांत हो जानी चाहिये थी । यदि कहें भिवष्य में सांत होने वाली है तो फिर इससे
छूटने के लिये प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है ? इसके सांत होने पर सारे जीव
अपने आप ही मुक्त हो जायेंगे । फिर भगवान् किसलिए कहते हैं कि यह त्रिगुणमयी मेरी
माया तरनेमें बड़ी दुस्तर है; किन्तु जो मेरी शरण हो जाते हैं वे इस माया को तर कर
जाते हैं ।शेष अगले ब्लॉग में.....
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
रविवार, 21 अक्तूबर 2012
शक्तिका रहस्य
अब आगे........
त्रिगुणामयी प्रकृति
और परमात्मा का परस्पर आधेय और आधार एवं व्याप्य-व्यापक-सम्बन्ध है । प्रकृति आधेय और परमात्मा आधार है । प्रकृति व्याप्य और
परमात्मा व्यापक है । नित्य चेतन, विज्ञानानंदघन परमात्मा के किसी एक अंश
में चराचर जगत के सहित प्रकृति है । जैसे तेज, जल, पृथ्वी के सहित वायु, आकाश के आधार है
वैसे ही यह परमात्मा के आधार है । जैसे बादल आकाश से व्याप्त है वैसे ही परमात्मा से
प्रकृतिसहित यह सारा संसार व्याप्त है ।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।। (गीता ९।६)
अर्थात् ` जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरने-वाला महान् वायु सदा ही
आकाश में स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पत्ति वाले होनेसे सम्पूर्ण भूत
मेरे में स्थित है-ऐसे जान ।`
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं क्रिंत्स्रमेकांशेन स्थितो जगत् ।। (गीता १०।४२)
अर्थात ` अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से
तेरा क्या प्रयोजन है ? मैं इस सम्पूर्ण को अपनी योगमाया के एक अंश मात्र से धारण
करके स्थित हूँ ।`
ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किंच
जगत्यां जगत् । ( ईश०१)
अर्थात् `त्रिगुणामयी मायामें स्थित यह सारा
चराचर जगत् ईश्वर से व्याप्त है ।`
किन्तु उस त्रिगुणमयी मायासे वह लिपायमान नहीं
होता । क्योंकि विज्ञानानंदघन परमात्मा गुणातीत, केवल और सबका साक्षी है ।
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।
(श्वेता०६।११)
अर्थात् ` जो देव सब भूतों में छिपा हुआ,
सर्वव्यापक, सर्वभूतों का अन्तरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, सब भूतों का आश्रय,
सबका साक्षी, चेतन, केवल और निर्गुण यानी सत्व, रज, तम---इन तीनों गुणों से परे है
वह एक है ।` शेष अगले ब्लॉग में.......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
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[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
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शनिवार, 20 अक्तूबर 2012
शक्तिका रहस्य
अब आगे......
संसार कि उत्पति का कारण कोई
परमात्मा को और कोई प्रकृति तथा कोई परमात्मा और प्रकृति दोनों को बतलाते हैं । विचार करके देखने से सभी का कहना ठीक है । जहाँ संसार कि रचयिता प्रकृति है वहाँ समझाना चाहिये कि पुरुष के सकाश से ही
गुणमयी प्रकृति संसार को रचती है ।
मयाध्येक्षण प्रकृति सूयते
सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।(गीता९।१०)
अर्थात `हे अर्जुन !मुझ अधिष्ठाता के सकाश से यह
मेरी माया चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे गये हेतु से ही यह संसार
आवागमनरूप चक्रमें घुमता है ।`
जहाँ संसार का रचयिता परमेश्वर है वहाँ सृष्टि
के रचाने में प्राकृत द्वार है ।
प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि
पुनः पुनः ।
भुतप्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।। (गीता ९।८)
अर्थात ` अपनी त्रिगुणमयी माया को
अंगीकार करके स्वभाव के वश से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बारंबार उनके
कर्मों के अनुसार रचता हूँ ।`
वास्तव में प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही चराचर संसार कि उत्पति
होती है ।
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ
दधाम्यहम ।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवती भारत
।। (गीता १४।३)
अर्थात `हे अर्जुन ! मेरी महद्ब्रह्मरूप प्रकृति
अर्थात त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों कि योनी है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और
मैं उस योनी में चेतनरूप बीजको स्थापन करता हूँ । उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों कि प्राप्ति होती है ।`
क्योंकि विज्ञानानंदघन, गुणातीत परमात्मा
निर्विकार होने के कारण उसमें क्रिया का अभाव है । और त्रिगुणामयी माया जड़ होने के कारण उसमें भी क्रिया का अभाव है । इसलिये परमात्मा के सकाश से जब प्रकृति स्पन्द होता है तभी संसार की उत्पत्ति
होती है । अतएव प्रकृति और परमात्मा के संयोग से ही संसार की
उत्पत्ति होती है अन्यथा नहीं । महाप्रलय में कार्यसहित तीनों गुण कारण में लय हो
जाते हैं तब उस प्रकृति कि अवयक्त-स्वरुप साम्यावस्था हो जाती है । उस समय सारे जीव स्वभाव, कर्म और वासना सहित उस मूल प्रकृति में तन्मय-से हुए
अव्यक्तरूप से स्थित रहते हैं । प्रलयकाल कि अवधि समाप्त होनेपर उस माया-शक्ति में
ईश्वर के सकाश से स्फूर्ति होती है तब विकृत अवस्था को प्राप्त हुई प्रकृति तेईस
तत्त्वों के रूप में परिणत हो जाती है तब उसे व्यक्त कहते हैं । फिर ईश्वर के सकाश से ही वह गुण, कर्म और वासना के अनुसार फल भोगने के लिये
चराचर जगत को रचती है । शेष अगले ब्लॉग में......
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण
!
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]
[ पुस्तक 'तत्व-चिन्तामणि` श्रीजयदयालजी गोयन्दका कोड ६८३, गीता प्रेस,गोरखपुर ]