|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २०७०
संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है
गत ब्लॉग से आगे…. ऐसा कोई उदाहरण
नहीं जिसके द्वारा भगवान की दया का स्वरूप समझाया जा सके | माता का उदाहरण दे तो
वह भी उपयुक्त नहीं ही | कारण, दुनिया में असंख्य जीव है और उन सबकी माताओं के
ह्रदय में अपने पुत्रों पर जो दया यस स्नेह है, वह सब मिलकर भी उन दयासागर की दया
के एक बूद के बराबर भी नहीं है | ऐसी हालत में और किससे तुलना की जाय? तो भी माता
का उदाहरण इसलिए दिया जाता है की लोक में जितने उदाहरण है, उन सबमे इसकी विशेषता
है | माता अपने बच्चों के लिए जो कुछ भी करती है, उसकी प्रत्येक क्रिया में दया
भरी रहती है | इस बात को बच्चे को भी कुछ-कुछ अनुभव रहता है | जब बच्चा शरारत करता
है तो उसके दोषनिवारणार्थ माँ उसे धमकाती मारती है और उसको अकेला छोड़ कर कुछ दूर
हट जाती है | ऐसी अवस्था में भी बच्चा माता के ही पास जाना चाहता है | दुसरे लोग
उससे पूछते है-‘तुम्हे किसने मारा?’ वह रोता हुआ कहता है ‘माँ ने !’ इसपर वे कहते
है-‘तो आइन्दा उसके पास नहीं जाना|’ परन्तु वह उनकी बात पर ध्यान न देकर रोता हुआ
और माता के ही पास जाना चाहता है | उसे भय दिखलाया जाता है की ‘माँ तुझे फिर
मारेगी’ पर इस बात की परवाह न करके अपने सरल भाव से माता के ही पास जाना चाहता है
| रोता है, परन्तु चाहता है माँ को ही | जब माता उसे ह्रदय से लगा कर उसके आसूँ
पौछती है, आश्वासन देती है, तभी वह शान्त होता है |
इसी प्रकार माता की दया पर
विश्वाश करने वाले बच्चे की भाँती जो भगवान के दया-तत्व को जान लेता है और भगवान
की मार पर भी भगवान को ही पुकारता है, भगवान उसे अपने ह्रदय से लगा लेते है | फिर
जो भगवान की कृपा को विशेष रूप से जान लेता है, उसकी तो बात ही क्या है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!