※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 31 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण,सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-आपके प्रत्यक्ष प्रगट होने पर भी दर्शकों में श्रद्धा की कमी क्यों रह जाती है ? उदाहरण देकर समझाइये |

भगवान-मैं श्रद्धा की कमी और अभाव होते हुए भी सबके सामने प्रगट हो सकता हूँ और प्रगट होने पर भी श्रद्धा की कमी-वेशी रह सकती है; दुर्योधन की सभा में विराटस्वरूप में प्रगट हुआ और अपनी अपनी भावनाओं के अनुसार दीख पड़ा और बहुत लोग मुझे देख भी नहीं सके |

साधक-जब आप प्रत्यक्ष अवतार लेते है तब तो सबको समान भाव से दीखते होंगे |

भगवान-अवतार के समय भी जिसको भावना जैसी रहती है उसी प्रकार उसको दीखता हूँ |*

*जिन्ह के रही भावना जैसी | प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ||

साधक-बहुत-से लोग कहते है की सच्चिदानन्दघन परमात्मा साकाररूप से भक्त के सामने प्रगट नहीं हो सकते | लोगो को अपनी भावना ही अपने-अपने इष्टदेव के साकार रूप में दीखने लग जाती है |

भगवान-वे सब भूल में कहते है | वे मेरे सगुणस्वरूप के रहस्य को नहीं जानते | मैं स्वयं सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही अपनी योगशक्ति से दिव्य सगुण साकार रूप में भक्तों के लिए प्रगट होता हूँ | हाँ, साधानकाल में किसी-किसी को भावना से ही मेरे दर्शनों की प्रतीति भी हो जाती है, किन्तु वास्तव में वे मेरे दर्शन नहीं समझे जाते |

साधक-साधक कैसे समझे की दर्शन प्रयत्क्ष हुए या मन की भावना ही है|

भगवान-प्रत्यक्ष और भावना में तो रात-दिन का अन्तर है | जब मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होता है तो उसमे भक्तों के सब लक्षण घटने लग जाते है और उस समय की सारी घटनाएं भी प्रमाणित होती है, जैसे ध्रुव को मेरे प्रयत्क्ष दर्शन हुए और शन्ख छुआने से बिना पढ़े ही उसे सब शास्त्रों का ज्ञान हो गया | प्रह्लाद के लिए भी प्रयत्क्ष प्रगट हुआ और हिरण्यकशिपु का नाश कर डाला | ऐसी घटनाएं भावमात्र नहीं समझी जा सकती | किन्तु जो भावना से मेरे स्वरूप की प्रतीति होती है उसकी घटनाएं इस प्रकार प्रमाणित नहीं होती |

साधक-कितने ही कहते है की भगवान तो सर्वव्यापी है फिर वे एक देश में कैसे प्रगट हो सकते है ? ऐसा होने पर क्या आपके सर्वव्यापीपन में दोष नहीं आता ?

भगवान-नहीं, जैसे अग्नि सर्वयापी है | कोई अग्नि के इच्छुक अग्नि को साधन के द्वारा किसी एक देश में या एक साथ अनेकों देश में प्रज्वलित करते है तो वे अग्निदेव सब देशों में मौजूद रहते हुए भी अपन सर्वशक्ति को लेकर एक देश में या अनेको देश में प्रगट होते है | और मैं तो अग्नि से भी बढकर व्याप्त और अपरिमित शक्तिशाली हूँ, फिर मुझ सर्वव्यापी के लिए सब जगह स्थित रहते हुए ही एक साथ एक या अनेक जगह सर्वशक्ति से प्रगट होने में क्या आश्चर्य है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 30 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण,षष्ठी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-फिर आपकी आज्ञा का अक्षरश: पालन न होने में क्या कारण है |

भगवान-सन्च्चित पाप एवं राग, द्वेष, काम, क्रोधादि दुर्गुण ही बाधा डालने में हेतु है |

साधक-इनका नाश कैसे हों ?

भगवान-यह तो पहले ही बतला चुका हूँ, भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग आदि साधनों से होगा |

साधक-इसके लिए अब और भी विशेषरूप से कोशिश करने की चेष्टा करूंगा | किन्तु यह भी तो आपकी मदद से ही होगा |

भगवान-मदद तो मुझसे चाहों जितनी ही मिल सकती है |

साधक-प्रभों ! कोई-कोई कहते है की प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञानचक्षु से होते है, चर्मचक्षु से नहीं, सो क्या बात है ?

भगवान-उनका कहना ठीक नहीं है | भक्त जिस प्रकार मेरा दर्शन चाहता है उसको मैं उसी प्रकार दर्शन दे सकता हूँ |

साधक- आपका विग्रह तो दिव्य है फिर चर्म चक्षु से उसके दर्शन कैसे हो सकते है ?

भगवान-मेरे अनुग्रह से | मैं उसको ऐसी शक्ति प्रदान कर देता हूँ जिसके आश्रय से वह चर्म चक्षु के द्वारा भी मेरे दिव्य स्वरूप का दर्शन कर सकता है |

साधक-जहाँ आप साकारस्वरूप से प्रगट होते है वहाँ जितने मनुष्य रहते है उन सबको दर्शन देते है या उनमे से किसी एकदो को ?

भगवान-मैं जैसा चाहता हूँ वैसा ही हो सकता है |

साधक-चर्मदृष्टि तो सबकी समान है फिर किसी को दर्शन होते है और किसी को नहीं, यह कैसे ?

भगवान-इसमें कोई आश्चर्य नहीं | एक योगी भी अपनी योगशक्ति से ऐसा काम कर सकता है की बहुतों के सामने प्रगटहोकर भी किसी के दृष्टिगोचर हो और किसी के नहीं |

साधक-जब आप सबके दृष्टीगोचर होते है तब सबको एक ही प्रकार से दीखते है या भिन्न-भिन्न प्रकार से ?

भगवान-एक प्रकार से भी दीख सकता हूँ और भिन्न-भिन्न प्रकार से भी | जो जैसा पात्र होता है अर्थात मुझमे जिसकी जैसा भावना, प्रीति और श्रद्धा होती है उसको मैं उसी प्रकार दीखाई देता हूँ |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 29 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -११-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, पन्चमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-यदि मन ही चाहने लगे तो फिर आपसे प्रार्थना ही क्यों करू ? मन नहीं चाहता इसलिये तो आपकी आपकी मदद चाहता हूँ |

भगवान-मेरी आज्ञाओ के पालन करने में तत्पर रहने से ही मेरी पूरी मदद मिलती है | यह विश्वास रखों की इसमें तत्पर होने में कठिन-से-कठिन भी काम सहज में हो सकता है |

साधक-भगवन् ! आप जैसा कहते है वैसा ही करूंगा, किन्तु होगा सब आपकी कृपा से ही | मैं तो निमितमात्र हूँ | इसलिए आपकी यह आज्ञा मानकर अब विशेष रूप से कोशिश करूँगा, मुझे निमित बनाकर जो कुछ करा लेना है, सो करा लीजिये |

भगवान-ऐसा मान लेने में तुम्हारे में कही हरामीपन न आ जाय |

साधक-भगवन् ! क्या आपसे मदद माँगना भी हरामीपन है |

भगवान-मदद तो मागता रहें, किन्तु काम करने में जी चुराता रहे और आज्ञापालन करे नहीं, इसी का नाम हरामीपन है | मैंने जो कुछ बतलाया है मुझमे चित लगा कर वैसा ही करते रहों | आगे-पीछे का कुछ भी चिन्तन मत करों | जो कुछ हो प्रसन्नतापूर्वक देखते रहो | इसी का नाम शरणागति है ! विश्वास रखों की इस प्रकार शरण होने से सब कार्यों की सिद्धि हो सकती है |

साधक-विश्वास तो करता हूँ किन्तु आतुरता के कारण भूल हो जाती है और परमशांति तथा परमानन्द ही प्राप्ति की और लक्ष्य चला जाता है |

भगवान-जैसे कार्य के फल की और देखते हो वैसे कार्य की तरफ क्यों नहीं देखते  ? मेरी आज्ञा के अनुसार कार्य करने से ही मेरे में श्रद्धा और प्रेम की वृद्धि होकर मेरी प्राप्ति होती है |

साधक-किन्तु प्रभो ! आपमें श्रद्धा और प्रेम के हुए बिना आज्ञा का पालन भी तो नहीं हो सकता |

भगवान-जितनी श्रद्धा और प्रेम से मेरी आज्ञा का पालन हो सके उतनी श्रद्धा और प्रेम तो तुममे है ही |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 28 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१०-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-नहीं मानुँ तो क्या करूँ ? कैसे न मानुँ | पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के बिना तो दर्शन हो ही नहीं सकते और उनकी मुझमे बहुत कमी हैं |

भगवान-क्या कमी की पूर्ती नहीं हो सकती ?

साधक-हो सकती है, परन्तु जिस तरह से होती आयी है यदि उसी तरह से होती रही तो इस जन्म में तो इस कमी की पूर्ती होनी सम्भव नहीं |

भगवान-ऐसा सोचकर तुम स्वयं ही अपने मार्ग में क्यों रूकावट डालते है ? क्या सौ बरस का कार्य एक मिनट में नहीं हो सकता ?

साधक-हाँ, आपकी कृपा से सब कुछ हो सकता हैं |

भगवान-फिर यह हिसाब क्यों लगा लिया की इस जन्म में अब सम्भव नहीं |

साधक-यह मेरी मूर्खता है पर अब ऐसी कृपा कीजिये जिससे अपमे शीघ्र ही पूर्ण श्रद्धा  और अनन्य प्रेम हो जाय |

भगवान-क्या मुझमे तुम्हारी पूर्ण श्रद्धा और प्रेम होना मैं नहीं चाहता ? क्या इसमें मैं बाधा डालता हूँ |

साधक-इसमें बाधा डालने की तो बात ही क्या है ? आप तो मदद करते है | किन्तु श्रद्धा और प्रेम की पूर्ती में विलम्ब हो रहा है, इसलिए प्रार्थना की जाती है |

भगवान-ठीक है | किन्तु पूर्ण प्रेम और श्रद्धा की जो कमी है उसकी पूर्ती करने के लिए मेरा आश्रय लेकर खूब प्रयत्न करना चाहिये |

साधक-भगवन् ! मैंने सुना है की रोनेसे भी उसकी पूर्ती होती है | क्या यह ठीक है ?

भगवान-वह रोना दूसरा है |

साधक-दूसरा कौन-सा और कैसा ?

भगवान-वह रोना ह्रदय से होता हैं;जैसे की कोई आर्त दुखी आदमी दुःखनिवृति के लिए सच्चे ह्रदय से रोता है |

साधक-ठीक है | चाहता तो वैसा ही हूँ, किन्तु सब समय वैसा रोना आता नहीं |

भगवान-इससे यह निश्चित होता है की बुद्धि के विचारद्वारा तो तुम रोना चाहते हों, किन्तु तुम्हरा मन नहीं चाहता |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 27 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -९-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-भगवन् ! अब यह बतलाइये की आप प्रत्यक्ष दर्शन कब देंगे ?

भगवान-इसके लिए तुम चिंता क्यों करते हों ? जब हम ठीक समझेंगे उसी वक्त दे देंगे | वैध जब ठीक समझता है तब आप ही सोचकर रोगी को अन्न देता है | रोगी को तो वैध पर ही निर्भर रहना चाहिये |

साधक-आपका कथन ठीक है ! रोगी को भूख लगती है तो वह ‘मुझे अन्न कब मिलेगा’ ऐसा कहता ही है |

भगवान-वैध जानता ही की रोगी की भूख सच्ची है या झूठी | भूक देखकर भी यदि वैधरोगी को अन्न नहीं देता तो उस न देने में भी उसका हित ही है |

साधक-ठीक है, किन्तु आपके दर्शन न देने में क्या हित है यह मैं नहीं समझता | मुझे तो दर्शन देने में ही हित दीखता है | रोटी से तो नुकसान भी हो सकता है किन्तु आपके दर्शन स कभी नुकसान नहीं हो सकता बल्कि परम लाभ होता है, इसलिये आपका मिलना रोटी मिलने के सद्रष नहीं है |

भगवान-वैध जब जिस चीज के देने में सुधार होना मालूम पडता है उसी को उचित समय पर रोगी को देता है | इसमें तो रोगी को वैध पर ही निर्भर रहना चाहिये | वैध सच्ची भूख समझकर रोगी को रोटी देता है और उससे नुकसान भी नहीं होता | यदपि मेरा मिलना परम लाभदायक है किन्तु मुझमे पूर्ण प्रेम और श्रद्धारूप सच्ची भूख के बिना मेरा दर्शन नहीं हो सकता |

साधक-श्रद्धा और प्रेम की मुझमे बहुत कमी है और मुझमे उसकी पूर्ती होनी भी बहुत ही कठिन प्रतीत होती है | अतएव मेरे लिए तो आपके दर्शन असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य जरुर है |

भगवान-ऐसा माना तुम्हारी बड़ी भूल है, ऐसा मानने से ही तो दर्शन होनें में विलम्ब होता है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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रविवार, 26 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -८-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, प्रतिपदा, रविवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-कोशिश तो खूब करता हूँ, किन्तु मन के आगे मेरी कुछ चलती नहीं |

भगवान-खूब कोशिश करता हूँ यह मानना गलत है | कोशिश थोड़ी करते हो और उसको मान बहुत लेते हों |

साधक-इसके सुधारने के लिए मैं विशेष कोशिश करूँगा; किन्तु शरीर में और सांसारिक विषयों में आसक्ति रहने तथा मन चन्चल होने के कारण आपकी दया बिना पूर्णतया शरण होना बहुत कठिन प्रतीत होता है |

भगवान-कठिन मानते हो इसलिए कठिन प्रतीत हो रहा है | वास्तव में कठिन है नहीं |

साधक-कैसे न कठिन मानूँ? मुझे तो ऐसा प्रयत्क्ष प्रतीत होता है |

भगवान-ठीक मालूम हो तो होता रहे, किन्तु तुम्हे हमारी बात की और ध्यान देना चाहिये |

साधक-आज से आपकी दयापर भरोसा रखकर कोशिश करूँगा जिससे वह मुझे कठिन भी मालूम न पड़े | किन्तु सुना है की आपके थोड़े-से भी नाम-जप तथा ध्यान से सब पापों का नाश हो जाता है | शास्त्र और आप भी ऐसा ही कहते है, फिर वृतियाँ मलिन होने का क्या कारण है ? थोडा-सा भजन-ध्यान तो मेरे द्वारा भी होता ही होगा |

भगवान-भजन-ध्यान से सब पापों का नाश होता है यह सत्य है किन्तु इसमें कोई विश्वाश करे तब न | तुम्हारा भी तो इसमें पूरा विश्वास नहीं है, क्योकि तुम मान रहे हों की पापों का नाश नहीं हुआ है | वे अभी वैसे ही पड़े है |

साधक-विश्वास न होने में क्या कारण है ?

भगवान-नीच* और नास्तिकों# का संग, सन्च्चित पाप और दुर्गुण |

 * झूठ, कपट, चोरी, जारी, हिंसा आदि शास्त्रविपरीत कर्म करने वालों को नीच कहते है |

# ईश्वर को तथा श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रको न मानेवाले को नास्तिक कहते है |      

साधक-पाप और दुर्गुण क्या अलग-अलग वस्तु है ?

भगवान-चोरी, जारी, झूठ, हिंसा और दम्भ-पाखंड आदि पाप है तथा राग, द्वेष, काम, ल्रोध, दर्पऔर अहंकार आदि दुर्गुण है |

साधक-इन सबका नाश कैसे हो?

भगवान-इनके नाश के लिए निष्काम भाव से भजन, ध्यान, सेवा और सत्संग आदि करना ही सबसे बढकर उपाय है |

साधक-सुना है वैराग्य होने से राग-द्वेषादी दोषों का नाश हो जाता है और उससे भजन-ध्यान का साधन भी अच्छा होता है |

भगवान-ठीक है ! वैराग्यसे भजन-धयन का संग्रह बढ़ता है | किन्तु अंत:करण शुद्ध हुए बिना दृढ वैराग्य भी तो नहीं होता | यदि कहो तो शरीर और संसारिक भोगों में दुःख और दोषबुद्धि करने से भी वैराग्य हो सकता है, सो ठीक है | पर यह वृति भी उपर्युक्त साधनों से ही होती है | अतएव भजन, ध्यान, सेवा और सत्संग आदि करने की प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शनिवार, 25 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -७-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, पूर्णिमा, शनिवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे... साधक-आपका आश्रय लेकर और कोशिश करने की चेष्टा करूँगा; किन्तु काम तो आपकी दयासे ही होगा |

भगवान-यह तो तुम्हारे प्रेम की बात है की तुम मुझ पर विश्वाश रखते हों | किन्तु सावधान रहना की भूल से कहीं हरामीपन न आ जाये | मैं कहता हूँ की तुम्हे उत्साह बढ़ाना चाहिये | जब मेरा यह कहना है तो तुम्हारे उत्साह में कमी होने का कोई कारण नहीं है | केवल मन ही तुम्हे धोखा दे रहा है | उत्साहभंग की बात मन में आने ही मत दो, हमेशा उत्साह रखों |

साधक-शान्ति और प्रसन्नता न मिलने पर मेरा उत्साह ढीला पड़ जाता है |

भगवान-जब तुम मुझ पर भरोसा रखते हो तो फिर कार्य की सफलता की और क्यों ध्यान देते हों ? वह भी तो कामना ही है |

साधक-कामना तो है किन्तु वह है तो केवल भजन-ध्यान की वृद्धि के लिए ही |

भगवान-जब तुम हमारी शरण आ गए हो तो भजन-ध्यान की वृद्धि के लिए शान्ति और प्रसन्नता की तुम्हे चिंता क्यों है ?  तुझे तो मेरे आज्ञा पालन पर ही विशेष ध्यान रखना चाहिये | कार्य के फल पर नहीं |

साधक-कार्य सफल न होने से उत्साहभंग होगा और उत्साह-भंग होने भजन-ध्यान नहीं बनेगा |

भगवान-यह तो ठीक है, किन्तु सफलता की कमी देखकर भी उत्साह में कमी नहीं होनी चाहिये | मुझ पर विश्वास करके उतरोतर मेरी आज्ञा से उत्साह बढ़ाना चाहिये |

साधक-यह बात तो ठीक और युक्तिसंगत है, किन्तु फिर भी शान्ति और प्रसन्नता न मिलने पर उत्साह में कमी आ ही जाती है |

भगवान-ऐसा होता है तो तुमने फिर मेरी बात पर कहाँ ध्यान दिया ? इसमें तो केवल तुम्हारे मन का धोखा है |

साधक-क्या इसमें मेरे सन्च्चित पाप कारण नहीं है ? क्या वे मेरे उत्साह में बाधा नहीं डाल रहे है |

भगवान-मेरी शरण हो जाने पर पाप रहते ही नहीं |

साधक-यह मैं जानता हूँ किन्तु मैं वास्तव में आपकी पूर्णतया शरण कहाँ हुआ हूँ ? अभीतक तो केवल वचन मात्र से ही मैं आपकी शरण हूँ |

भगवान-वचनमात्र से भी जो एक बार मेरी शरण आ जाता है उसका भी मैं परित्याग नहीं करता | किन्तु तुम्हे तो तुम्हारा जैसा भाव है उसके अनुसार मेरे शरण होने के लिए खूब कोशिश करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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शुक्रवार, 24 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -६-


        || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो ! आप सत्संग की इतनी महिमा क्यों करते है ?

भगवान-बिना सत्संग के न तो भजन, ध्यान, सेवादीका साधन ही होता है और न मुझमे अनन्य प्रेम ही हो सकता है | इसके बिना मेरी प्राप्ति होना कठिन है | इसी से मैं सत्संग की इतनी महिमा कहता हूँ |

साधक-प्रभो ! बतलाइये, सत्संग के लिए क्या उपाय किया जाय ?

भगवान-पहले मैं इसका उपाय बतला चुका हूँ की श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सत्संग के लिए कोशिश करने पर मेरी कृपा से सत्संग मिल सकता है |

साधक-अब मैं सत्संग के लिए और भी विशेष कोशिश करूँगा | आपसे भी निष्काम प्रेमभाव से भजन-ध्यान निरन्तर होने के लिए मदद मांगता हूँ |

भगवान-तुम अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक मांग रहे हो, किन्तु वह तुम्हारे मन को उतना अच्छा  नहीं लगता जितना की विषयभोग लगते है |   

साधक-हाँ ! बुद्धि से तो मैं चाहता हूँ, पर मन बड़ा ही पाजी है, इससे रूचि कम होने के कारण उसको भजन-ध्यान अच्छा न लगे तो उसके आगे मैं लाचार हूँ | इसलिए ही आपको विशेष मदद करनी चाहिये |

भगवान-मन की भजन-ध्यान की और कम रुचि हो तो भी यही कोशिश करते रहों की वह भजन-ध्यान में लगा रहे | धीरे-धीरे उसमे रुचि होकर भजन ठीक हो सकता है |

साधक-मैं शक्ति के अनुसार कोशिश करता रहा हूँ किन्तु अभी तक सन्तोषजनक काम नहीं बना | इसी से उत्साह भंग-सा होता है | यही विश्वास है की आपकी दया से ही यह काम हो सकता है | अतएव आपको विशेष दया करनी चाहिये |

भगवान-उसाहहीन नहीं होना चाहिये | मेरे ऊपर भार डालने से सब कुछ हो सकता है | यह तो ठीक है, किन्तु मेरी आज्ञा के अनुसार कटिबद्ध होकर चलने की भी तो तुम्हे कोशिश करनी ही चाहिये | ऐसा मत मानो ही हमने सब कोशीश कर ली, अभी कोशिश करने में बहुत कमी है | तुम्हारी शक्ति के अनुसार अभी कोशिश नहीं हुई है | इसलिए खूब तत्परता से कोशिश करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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गुरुवार, 23 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -५-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, त्रयोदशी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-आपकी स्मृति मुझे सदा बनी रहे इसके लिए मैं इच्छा रखता हूँ, किन्तु चंच्चल और उदण्ड मन के आगे मेरी कोशिश चलती नहीं | इसके लिए क्या उपाय करना चाहिये ?

भगवान-जहाँ-जहाँ तुम्हारा मन जाए , वहाँ-वहाँ से उसको लौटाकर प्रेम से समझाकर मुझमे पुन:-पुन: लगाना चाहिये अथवा मुझको सब जगह समझकर जहाँ-जहाँ मन जाए वहाँ मेरा ही चिन्तन करना चाहिये |

साधक-यह बात मैंने  सुनी है, पढ़ी है और मैं समझता भी हूँ | किन्तु उस समय यह युक्ति मुझे याद नहीं रहती इस कारण आपका स्मरण नहीं हो पाता |

भगवान-आसक्ति के कारण यह तुम्हारी बुरी आदत पड़ी है | अत: आसक्ति का नाश और आदत सुधारने के लिए महापुरुषों का संग तथा नामजप अभ्यास करना चाहिये |

साधक-यह तो यत्किंच्चित किया भी जाता है और उससे लाभ भी होता है; किन्तु मेरे दुर्भाग्यसे यह भी तो हर समय नहीं होता |

भगवान-इसमें दुर्भाग्य की कौन बात है ? इसमें तो तुम्हारी ही कोशिश की कमी है |

साधक-प्रभो ! क्या भजन और सत्संग कोशिश से होता है ? सुना है की सत्संग पूर्वपुण्य इक्कठे होने पर ही होता है |

भगवान-मेरा और सत्पुरुषों का आश्रय लेकर भजन की जो कोशिश होती है वह अवश्य सफल होती है | उसमे कुसंग. आसक्ति और सन्च्चित बाधा तो डालते है, किन्तु तीव्र अभ्य्यास से सब बाधाओं का नाश हो जाता है और उतरोतर साधन की उन्नति होकर श्रद्धा और प्रेम की वृद्धि होती है और फिर विघ्न-बाधाये नजदीक भी नहीं आ सकती | प्रारब्ध केवल पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों के अनुसार भोग प्राप्त कराता है, वह नवीन शुभ कर्मों के होने मीन बाधा नहीं डाल सकता | जो बाधा प्राप्त होती है वह साधक की कमजोरी से होती है | पूर्वसन्च्चित पुण्यों के सिवा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक कोशिश करनेपर भी मेरी कृपा से सत्संग मिल सकता है |

साधक-प्रभों ! बहुत से लोग सत्संग करने की कोशिश करते है पर जब सत्संग नहीं मिलता तो भाग्य की निन्दा करने लग जाते है ! क्या यह ठीक है ?

भगवान-ठीक है किन्तु उसमे धोखा हो सकता है | साधन में ढीलापन आ जाता है | जितना प्रयत्न करना चाहिये उतना करने पर यदि सत्संग न हो तो ऐसा माना जा सकता है परन्तु इस विषय में प्रारब्ध की निंदा न करके अपने में श्रद्धा और प्रेम की जो कमी है उसकी निंदा करनी चाहिये, क्योकि श्रद्धा और प्रेम में नया प्रारब्ध बनकर भी परम कल्याणकारक सत्संग मिल सकता है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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