।। श्रीहरिः
।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ शुक्ल, प्रतिपदा, शुक्रवार, वि० स० २०७०
सत्संग और कुसंग -७-
गत ब्लॉग से
आगे….. उपर्युक्त विवेचन श्रीभगवान् और सच्चे अधिकारी
महापुरुषों के सम्बन्ध में है । ऐसे महापुरुष कोई विरले ही होते है । इस सिद्धान्त का दुरूपयोग करके जो दुराचारी लोग
शास्त्रों तथा भगवान् का खण्डन करते हुए दम्भपूर्वक स्वयं अपने को भगवान् या
महापुरुष बतलाकर अपने कल्पित मिथ्या नाम का जप-कीर्तन करवाते है, अपने नश्वर शरीर
को पुजवाते, लोगो को अपना उचिष्ट, अपने चरणों की धूलि और चरणामृत देते, अपने चित्र
का ध्यान करवाते और इस प्रकार जनता को धोखा देकर स्वार्थ-साधन करते है, वे वस्तुत:
बड़ा पाप करते है । ऐसी लोगों को महापुरुष मानना
बड़े-से-बड़े धोखे में पडना है तथा ऐसे लोगों का सँग करना बड़े-से-बड़ा कुसंग है ।
असल में यह एक सिद्धान्त है की जिस प्रकार के भाववाले
पुरुष का संसर्ग जिस मात्रा में चेतनाचेतन पदार्थों को प्राप्त होता है, उसी
प्रकार के भावों का उसी मात्रा में न्यूनाधिकरूप से उनमे प्रवेश होता है और यह
प्रवेश जैसे महात्माओं के भावों का होता है । वैसे ही दुरात्माओं के भावों का भी होता है । महात्माओं का भाव जैसे सच्चे श्रद्धालु व्यक्तियों
पर तथा सात्विक पदार्थों पर विशेष प्रभाव पडता है, वैसे ही दुराचारियों के भावों
का दुराचारपरायण व्यक्तियों एवं राजस-तामस पदार्थों पर विशेष प्रभाव पडता है
इसीलिये अब यहाँ कुसंग के फल संक्षेप में विचार किया जाता है । ......शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!