※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 31 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३६-



।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, तृतीया, शनिवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३६-

 

गत ब्लॉग से आगे…....रात्रि को उन्होंने भाई जी श्रीहनुमानप्रसाद जी से ध्यान कराने को कहा । पहले तो वे नही समझे, परन्तु पुन: संकेत प्राप्त करने पर उन्होंने सेठजी के प्रिय ‘आनन्द’ तत्व का विशेषणोसहित उच्चारण किया । उन्होंने उसे बार-बार सुना । बड़े प्रसन्न हुए ।
 
तदन्तर  पुन: वैसा ही संकेत मिला, तब भाई जी ने उन्हें आनन्द-तत्व के शब्द कई बार सुनाये, फिर अद्वैत ब्रह्म की बोधक कुछ श्रुतियाँ सुनायी और उन्हें उनके लिए नित्य सत्य ब्रह्म-स्वरुप का वर्णन सुनाया । जो कुछ सुनाया उसमे से कुछ यहाँ दिया जा रहा है ।

आनन्द-तत्व के उद्गार- आनन्द, आनन्द, सत् आनन्द, चित्त आनन्द, पूर्ण आनन्द, अचल आनन्द, ध्रुव आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, बोधस्वरुप आनन्द, ज्ञानस्वरूप आनन्द, अमृतस्वरुप आनन्द, स्वरूपानन्द, आत्मानन्द, ब्रह्मानन्द, विज्ञानं आनन्द, कवैल्यानन्द, म्ह्दानन्द, अजरानन्द, अक्षरानन्द, नित्य आनन्द, अव्यय आनन्द, अनन्त आनन्द, अपार आनन्द, परत्परानंद, असीम आनन्द, परमानन्द, अनिवर्चनीय आनन्द, अचिन्त्य आनन्द, अपरिमेय आनन्द, निरतिशय आनन्द, आनंदमय आनन्द, आनन्द में आनन्द, आनन्द से ही आनन्द, आनन्द को ही आनन्द, आनन्द-ही-आनन्द, आनन्द-ही-आनन्द, आनन्द, आनन्द ।

तदन्तर कहा-

‘आपमें न जन्म है, न मृत्यु है, न जरा है, न रोग है, न वृद्धि है, न हास् है, न विकास है, न विनाश है । न मन है, न चित है, न प्राण है, न अप्राण है, न इन्द्रिय है, न इन्द्रियों के विषय है ।

आप सर्वप्रकाशरूप है, न चिन्मात्र ज्योति है, तीनो कालों से मुक्त है, कामादि विकारों से रहित है, आप दैहिक दोषों से मुक्त है, सदा निर्दोष है, आप निर्गुण है । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 30 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, द्वितीया, शुक्रवार,  वि० स० २०७१ 

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३५-

 

गत ब्लॉग से आगे…....हालत बिगड़ती गयी । १५ अप्रैल को ज्वर जायदा हो गया । ताप प्राय १०२ रहने लगा । नाडी की गति ११५-१२० रहने लगी । एक बार तो १४० भी हो गयी थी । श्वाश की गति भी बढ़ने लगी और २८ से ५० तक पहुच गयी । आहार बिलकुल छुट गया । केवल अनार का रस, मौसमी का रस या थोडा गंगाजल ले पाते । शुक्रवार १६ अप्रैल का दिन बड़े कष्ट या कठिनाई में बीता । आसपास खड़े सभी के मुख पर उदासी थी । ह्रदय में व्यथा थी । साथ में मन में एक बड़ा भारी प्रश्न था-सेठजी के बाद कौन धर्म के प्रचार की ध्वजा को सम्भालेगा ?
 
इस कष्ट की स्थिति में भी सेठजी का नामजप निरन्तर चल रहा था । अधरों का हिलना तथा अँगुलियों की पोरों पर अंगूठों का फिरना इसका प्रमाण था । चेतना भी निरन्तर बनी रही । विगत कई दिवसों से जो भी आते थे, वे अपना प्रणाम सेठजी के चरणों में निवेदन करते थे । सेठजी बदले में सबको संकेत से राम-राम कहते ।
 
जीवन के अंतिम क्षणों में भी व्यवहारिकता के निर्वाह का एक विचित्र प्रसंग है-एक वरिष्ठ व्यक्ति का राम राम निवेदन किया । तुरंत सेठजी ने आपने कांपते हाथों से दोनों हथेली जोड़ कर उनको प्रणाम किया । लोग देखकर दंग रह गए की ऐसी अशक्तावस्था के क्षण में भी पद के अनुसार यथायोग्य व्यवहार हो रहा है । इतना ही नहीं, अशक्तावस्था में भी उनकी मानसिक संध्या और सूर्य भगवान को जल से अर्घ्य हमेशा चलता रहता ।
 
उनको गीतापाठ और विष्णुसहस्त्रनाम सुनाया जाता था । यदि कही बीच में अशुद्धि होती तो अंगुली से संकेत करते थे । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 29 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३४-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल, प्रतिपदा, गुरूवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३४-
 

गत ब्लॉग से आगे…....गीताभवन में आने वालों की श्रद्धालु-भक्तों की भीड़ बढने लगी । सेठजी की रुग्णता का समाचार एक नगर से दो नगर, एक घर से दो घर और एक मुहँ से दो मुहँ फैलने लगा ।
 
सेठजी ने न जाने कितनों को अध्यात्मिक प्रेरणा दी है, न जाने कितनों को साधन में प्रवृत किया है, न जाने कितने की उलझनों को सुलझाया है, न जाने कितनो को आर्थिक सहायता दी है और न जाने कितने दुखियों को सच्चा वात्सल्य दिया है ? सेठजी का व्यक्तित्व अनोंखा है । साधारण गृहस्थ होकर भी परम ज्ञान निष्ठ थे साधारण व्यापारी होकर भी गहरे दार्शनिक थे । भावुक होकर भी बड़े विवेकशील थे ।
 
साधू या सन्यासी, सत्संगी या साधक, अभावग्रस्थ या कष्टपीडित, परिचित या अपरिचित, सबके हितचिन्तन में और हितार्थ सेवा में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया । श्रद्धालु भक्तों की, आत्मीय स्वजनों की, सहयोगी कार्यकर्ताओं की, प्रिय सत्संगियों की, इनके अतिरिक्त जो जैसे भी सेठजी से जुडा था, उनकी भीड़ बढ़ने लगी ।
 
 सेठजी के दर्शनार्थ सभी उमड़ने लगे । सेठजी को जब आने वालों की जानकारी दी गयी, बदले में राम राम कहकर उन्होंने परिवार के व्यक्तियों को यह भी आदेश दिया की उनका पूर्ण सत्कार किया जाये । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 28 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३३-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, अमावस्या, बुधवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-जीवन के अन्तिम क्षण-३३-

 

सेठजी का पन्चभौतिक शरीर धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा था । उन दिन में भी सेठजी पूर्व की तरह ही कार्य करते थे । एक समय वे पत्रोत्तर लिखवा रहे थे । एक सत्संगी भाई ने कहा की अब आपको पत्रोत्तर नहीं लिखवाने चाहिये । सेठजी ने कहा की यदि मुझे काफी इमार करना हो तो ये सब कार्य मुझसे बंद करवा दो ।

एक कर्मनिष्ठ, परमभागवत जयदयाल जी गोयन्दका की नेत्र ज्योति तो कई वर्ष पूर्व ही मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद नही के बराबर रह गयी थी । पिताशय में भी पथरी हो गयी थी, जिससे पांच-छ: दिन के अंतराल ज्वर आने लगा था और पेट में भी दर्द रहता था । शरीर निरन्तर क्षीण होता जा रहा था । उन दिनों सेठ जी बाँकुड़ा में थे । सभी लोगों को लगा के अब सेठ जी का शरीर जायदा दिन नही रहेगा । अत: ३१ मार्च १९६५ को सेठजी को गीताभवन स्वर्गाश्रम ले आया गया ।

शरीर की स्थिति उत्तरोतर गिरने लगी । पर देहवासन के पांच दिन पहले तक वे पत्र सुनते और उनके उत्तर लिखवाते रहे । बोलने की शक्ति कम हो गयी थी, तथापि वे धीरे-धीरे बोलते और उपदेश की बात कहते थे । प्रतिदिन-यहांतक की देहवसान के दिनों तक उन्होंने संध्या की और सूर्यअर्घ्य दिया ।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 27 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्दशी, मंगलवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३२-

 

सेठजी का शरीर शान्त होने के बाद स्वामीजी महाराज ने ट्रस्टीयों से कहा की अब यह संस्था वैसी नही चलेगी; क्योकि आप लोगों की दृष्टी में पैसे का महत्व जायदा है । किसी ट्रस्टी ने कहा की महाराजजी हम रुपया पैसा उठाकर तो ले नही जाते । महाराजजी ने कहा की इसकी तो मेरे कल्पना भी नहीं है । पूज्य सेठजी के सामने पैसा आता था सफल होने के लिए और आपलोग पैसों से सफलता मानते है ।

आषाढ़ कृष्ण एकादशी, सम्वत २०५७ (दिनांक २८-०६-२००) को स्वामी रामसुखदास जी महाराज के सानिध्य में षोड्स नाम का कीर्तन हो रहा था । पुरुषोतम दास जी अजीतसरिया ने देखा की शंकर भगवान् डमरू लेकर नाचते हुए आये एवं वहां बैठ गए । इसी बीच सेठजी आये । धोती, बगलबंदी एवं पगड़ी धारण कर रखे थे तथा जूता पहन रखे थे । जूता खोलकर बैठने के लिए कुर्सी मंगायी फिर स्वामी जी के पास चबूतरे पर बैठ गए । कीर्तन के बीच में स्वामी जी से काफी बाते की । फिर छीमछीमिया मँगाकर सीताराम सीताराम एवं नारायण नारायण का कीर्तन कराया । फिर उड़ जायेगा रे हँस अकेला-यह भजन गाने लगे । अन्य बातों को बीच में कहा हमने शरीर पांच वर्ष पहले छोड़ दिया था वही उम्र आपकी बढ़ गयी है । स्वामी जी का शरीर इस घटना के ठीक पांच वर्ष बाद आषाढ़ कृष्ण एकादशी, सम्वत २०६२ (दिनांक ३-७-२००५) की रात्रि में लगभग ३.४० पर शान्त हुआ । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 26 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, त्रयोदशी, सोमवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३१-

 

एक बार सेठजी प्रवचन में जा रहे थे । स्वामीजी महाराज को पहले से पता नहीं था वे भिक्षा करने बैठे हुए थे । महाराज जी को पता लगा की सेठजी प्रवचन के लये जा रहे है तो महाराज जी आचमन करके यह कह कर उठ गए की भिक्षा के लिए सत्संग क्या छोड़ना । उस समय चौबीस घंटे में एक बार भिक्षा लिया करते थे ।

एक बार स्वामीजी गीताप्रेस, गोरखपुर आये हुए थे । प्रात: ३ बजे शौच-स्नान के लिए नदी की और जाने के लिए गेट पर आये तो गेट बन्द मिला, गेट खुलने का समय प्रात: ४ बजे था । दिन में उन्होंने सेठजी से पुछा की साधू को फाटक खोलने के लिए कहना चाहिये या नही । सेठजी ने कोई उत्तर नहीं दिया तथा फाटक प्रात;काल जल्दी खोलने का आदेश दे दिया । स्वामीजी ने कहा-आपने मुझे तो उत्तर नही दिया और फाटक खुलवा दिया । सेठजी बोले की पहले हम तो अपने कर्तव्य का पालन करण तब तो अपना कर्तव्य बताये ।

एक बार स्वामी जी ने एकान्तवास का विचार किया । सेठजी ने कहा-स्वामीजी ! आप एकान्त में जाकर अपनी मुक्ति कर लेंगे । अकेले भोजन करना बढ़िया है क्या ? स्वामीजी बोले-मैं बहुत सुनाता हूँ; किन्तु ये लोग मानते ही नही है । सेठजी ने कहा-मैं भी तो सुनाता हूँ । अपना काम सुनाना है । हमलोगों को अपना काम करना चाहिये । स्वामीजी ने एकान्तवास का विचार छोड़ दिया । .. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, 25 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३०-


 

।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, द्वादशी, रविवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-३०-

 

३. स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज-

स्वामी रामसुखदास जी को सेठजी का वैराग्य-तत्व मिला । कई बातों में, आचार में, प्रचार में, उच्चार में, प्रवचन में स्वामी रामसुखदास जी सेठजी की ‘कार्बन कापी’ या ‘प्रतिछबी’ प्रतीत होते है- वैसे ही बैठना, वैसे ही ‘नारायण, नारयण, नारायण’ की नामधुन, गीताकी गहराई में उतरने की दक्षता, उसकी बारीकियों का वैसा ही सूक्ष्म विश्लेषण एवं उद्घाटन-लगता है की सेठजी ने अपना सारा ज्ञान घोलकर स्वामी जी को पिला दिया था । कुछ प्रसंग इस प्रकार है-

एक बार स्वामीजी महाराज को लगभग २४ वर्ष की आयु में एक गाँव में स्वप्न में जयदयाल जी गोयन्दका से सम्पर्क करने एवं भक्ति का प्रचार करने का संकेत हुआ । गाँव का नाम निमाज था । स्वामीजी का सेठजी से प्रथम मिलन ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चुरू में हुआ था ।

एक बार तीर्थयात्रा-ट्रेन में स्वामीजी, नारायणजी सरावगी वगैराह कई लोग बैठे थे । सेठजी ने स्वामीजी की तरफ संकेत करते हुए कहा की आप मानते तो नहीं है किन्तु ये लोग आपही के शिष्य है । स्वामी जी ने सेठजी की तरफ इशारा करते हुए कहा की आप मानते तो नही है किन्तु मैं आपका ही शिष्य हूँ ।

सेठजी ने स्वामी जी से सत्संग कराने को कहा-स्वामी जी ने कहा-मैंने बहुत सप्ताह, कीर्तन, प्रवचन किये है । उनसे धापकर अब साधन करने आपके पास आया हूँ । सेठजी ने कहा-सत्संग कराना भी साधन है । स्वामी जी बोले तो ठीक है ।

एक बार ग्रहण के समय सत्संग हो रहा था । सेठजी ने स्वामीजी से कहा आप सत्संग चलाये । स्वामीजी प्रवचन देते रहे । ग्रहण शुद्ध होने पर प्राय: सभी लोग धीरे-धीरे उठ गए । केवल प्रवचन करने वाले स्वामीजी तथा सुननेवाली द्रौपदी बाई जालान रह गयी । रसोई तैयार होने पर सेठजी ने कहा-पहले सन्तों को जिमाओं । स्वामीजी की खोज हुई तब पता चला, अभी सत्संग करवा रहे है । तब सेठजी उन्हें बुलाकर लाये ।

एक बार सेठजी से स्वामीजी ने कहा की आप इतनी बाते कहते है, हमलोग इसके अधिकारी नहीं है । सेठजी बोले मेरी बात आकाश में रहेगी । जब कोई अधिकारी मिलेगा उसे प्राप्त हो जाएगी ।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शनिवार, 24 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, एकादशी, शनिवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२९-

 

भाईजी ने सेठजी के प्रति महापुरुष वन्दन शीर्षक से एक पद और तैयार किया जो बड़ा ही भावपूर्ण है-

सर्व-शिरोमणि विश्व-सभा के, आत्मोपम विश्वम्भरके ।

विजयी नायक जग-नायक के, सच्चे सुहृद चराचर के ।।

सुखद सुधा-निधि साधु कुमुद के, भास्कर भक्त-कमल-वनके ।

आश्रय दीनो के, प्रकाश पथिकों के, अवलम्बन जन के ।।

लोभी जग-हित के, त्यागी सब जगत के, भोगी भूमा के ।

मोहि निर्मोही के, प्यारे जीवन बोधमयी माँ के ।।

तत्पर परम हरण पर-दुःख के, तत्परता-विहीन तनके ।

चतुर खिलाडी जग-नाटक के, चिन्तामणि साधक-जन के ।।

सफल मार्ग-दर्शक पथ-भ्रष्टों के, आधार अभागों के ।

विमल विधायक प्रेम-भक्ति के, उच्च भाव के, त्यागो के ।।

परम प्रचारक प्रभु-वाणी के, ज्ञाता गहरे भावों के ।

वक्ता, व्याख्याता, विसुद्ध, उच्छेदक सर्व कुभावों के ।।

पथदर्शक निष्काम-कर्म के, चालक अचल सांख्यपथ के ।

पालक सत्य अहिंसा व्रत के, घालक नित अपूत पथ के ।।

नासक त्रिविध ताप के, पोशाक तप के, तारक भक्तों के ।

हारक पापों के, संजीवन-भेषज विषयाशक्तों के ।।

पावनकर्ता पतितों के, पृथ्वी के, प्रेत, पितृ-गण के ।

भूषण भूमंडल के, दूषण राग-द्वेष रणागण के ।।

रक्षक अतिदृढ सत्य-धर्म के, भक्षक भव-जंजालों के ।

तक्षक भोग-रोग धन-मद के, व्यापारी सत-लालों के ।।

दक्ष दुभाषी जन, जन-धन के, मुखिया राम-दलालों के ।

छिपे हुए अज्ञात लोक-निधि, मालिक असली मालों के ।।

चूडामणि दैवी गुण-गण के, परमादर्श महानों के ।

महिमा-वर्णन में असक्त तव, विद्या-बल विद्वानों के ।।

भाईजी को सेठजी ने जैसिडीह में विष्णुभगवान् के दर्शन करवाये थे । इस पद में उसकी और संकेत मिलता है ।

परम गुरु राममिलावनहार ।

अति उदार मंजुल मंगलमय अभिमत फलदातार ।।

टूटी फूटी नाव पड़ी मम भीषण भाव नद धार ।

जयति जयति जयदेव दयानिधि बेग उतारों पार ।।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 23 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, नवमी, शुक्रवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२८-

 

२-श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्धार (भाई जी)

सेठजी की कर्मशक्ति की धारा घनश्याम जी में जैसे उतरी थी, वैसे ही उनकी भावशक्ति की धारा श्रीभाईजी में उतरी । उनमे भक्ति की एक मधुर प्रखर धारा बह निकली । श्रीभाई जी ने हरिनाम का रस, लीला का रस बरसाना शुरू किया और हजारों नही, लाखों-लाखों व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इस भावराज्य में प्रवेश कराया ।

आरम्भ में कहते है, श्रीभाईजी ने श्रीगोयन्दका जी को ही सम्बोधित कर यह भजन बनाया था-

जयति देव, जयति देव, जय दयालु देवा ।

परम गुरु, परम पूज्य, परम देव देवा ।।

सब विधि तव चरन-सरन आई परयों दासा ।

दीं, हीन-मति-मलीन, तदपि सरन आसा ।।

पातक अपार किन्तु दया को भिखारी ।

दुखित जानि राखु सरन पाप-पुंजहारी ।।

अबलौके सकल दोष क्षमा करहु स्वामी ।

ऐसो करूं, जाते पुनि हौ, न कुपथगामी ।।

पात्र हौं, कुपात्र हौं, भले अनधिकारी ।

तदपि हौं तुम्हारों, अब लेहूँ मोहि उबारी ।।

लोग कहत तुम्हरो सब, मनहु कहत सोई ।

करिय सत्य सोई नाथ !, भव-भ्रम सब खोई ।।

मोरि और जनि निहारी, देखिय निज तनही ।

हठ करि मोहि राखिय हरी ! संतत तल पनही ।।

कहों कहा बार-बार, जानहु सब भेवा ।

जयति, जयति, जय दयालु, जय दयालु देवा ।।

परम गुरु, परम पूज्य, परम देव देवा ।।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 22 मई 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, अष्टमी, गुरुवार,  वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-विशिष्ट सहयोगी-२७-

 

गीताप्रेस के इतिहास में ही क्यों, गोयन्दका की समस्त प्रवर्तियों एवं अनुष्ठानों तथा संकल्पों को रूपायित करने में घनश्यामदास जी का नाम स्वर्णअक्षरों में लिखा मिलेगा । आत्मनिवेदन का सौन्दर्य एवं आनन्द क्या है, कैसा होता है कोई घनश्याम जी से जाने । और क्या आश्चर्य की ऋषिकेश स्वर्गाश्रम के गीताभवन में घनश्यामजी ने गंगातट पर गोयन्दका जी की गोद में ही अपना शरीर छोड़ा । ए मरण ! तेरा कितना अनुपम पावन श्रृंगार उस दिन हुआ था । जिन मृत्यु पर मनुष्यों की कौन कहे देवता भी तरसते होंगे, ईर्ष्या करते होंगे । उनकी मृत्यु कई लोगों ने सामने पहाड़ी पर आतिशबाजी जैसा बिजली का प्रकाश एवं नगाड़ों के बजने के स्वर का अनुभव किया ।

एक बार सेठजी कई लोगों के बीच बैठकर चर्चा कर रहे थे की उनका शरीर शान्त होने के बाद कौन क्या-क्या काम करेगा । घनश्यामदास जी का नंबर आने पर उन्होंने कहा की जिसे रहना हो वह सोचे । मुझे तो आपके बाद रहना ही नही है ।

घनश्याम जी प्रेस के कर्मचारियों के सच्चे शुभचिन्तक थे । उनके अभाव में वे अपने को अनाथ मानने लगे । गोयन्दकाजी अनायास किसी को खोजना या पुकारना हो तो ‘घणसाम’ को पुकार बैठते । बाद में होश आता की घणसाम तो ‘घनश्याम’ में सदा के लिए जा मिला है । घनश्याम जी के जाने के बाद सेठजी का जैसे परम अन्तरंग अनन्य सखा-सचिव-सेवक चला गया । उस आभाव की पूर्ती कोई न कर सका ।.. शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!